21 November 2014

प्रतिभूति कानून (संशोधन) अधिनियम,2014

देश की चिट-फंड कंपनियों द्वारा आम जनता से गलत तरीके से धन एकत्र करने अथवा सरकार द्वारा मान्य निर्धारित समय से पहले धन को दोगुना या तिगुना करने की योजनाओं पर नियंत्रण करने के लिए केंद्र सरकार ने संबंधित कानूनों में संशोधन के लिए प्रतिभूति कानून (संशोधन) अधिनियम, 2014 को लागू कर दिया है।
  •  इससे संबंधित विधेयक को लोक सभा ने 6 अगस्त, 2014 को तथा राज्य सभा ने 12 अगस्त, 2014 को पारित किया था।
  •  पुनः 22 अगस्त, 2014 को इस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो जाने और जनसाधारण को सूचित करने के लिए भारत के राजपत्र में 25 अगस्त, 2014 को प्रकाशित हो जाने के बाद यह कानून पूरे देश में लागू हो गया है।
  •  देश के पूंजी-बाजार को नियंत्रित करने वाली संस्था ‘सेबी’ को इस संशोधित कानून के द्वारा व्यापक अधिकार और शक्ति प्रदान की गई है।
  •  इस उद्देश्य के लिए देश में पहले से ही लागू भारत का प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड अधिनियिम, 1992, जिसके अंतर्गत ‘सेबी’ अर्थात ‘भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड’ (Securities and Exchange Board of India-SEBI) का गठन किया गया है, प्रतिभूति संविदाएं (विनियमन) अधिनियम, 1956 और ‘डिपॉजिटरीज’ (Depo-sitories) अधिनियम, 1996 के मूल प्रावधानों में या तो संशोधन किया गया है या उनमें नया प्रावधान जोड़ा गया है।
  •  सेबी कानून में हुए इस संशोधन के अनुसार, अब सेबी जनता को लालच देकर या उनके साथ धोखा करके धन एकत्र करने वाली कंपनियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही कर सकता है।
  • अब सेबी इस संशोधन से इतना सशक्त हो गया है कि वह ऐसी कंपनियों या योजनाओं के संचालकों के कार्यालयों पर छापा मार सकता है, महत्त्वपूर्ण दस्तावेज तथा संपत्तियों को जब्त कर सकता है, संपत्ति को बंधक बना सकता है तथा जनता से एकत्र किए गए धन को ऐसी जब्त संपत्तियों से वसूल करके उन्हें जनता को वापस कर सकता है।
  •  नए कानून में यह भी प्रावधान किया गया है कि सेबी अपने मामलों के शीघ्र सुनवाई और उसके निपटारे के लिए स्वयं एक विशेष न्यायालय का गठन कर सकता है। इस न्यायालय की स्थापना इसके मुख्यालय-शहर मुंबई में की जा सकती है।
  • वर्ष 1992 के पुराने कानून में ‘सेबी’ इतना सशक्त नहीं था। अतः अभी तक इसके द्वारा  केवल दो मामलों अर्थात आईपीओ घोटाला (2006) और सत्यम कंप्यूटर घोटाला (2009) में ही वसूली कार्यवाही की जा सकी।
  •  ‘सहारा इंडिया रियल स्टेट कॉर्पोरेशन लिमिटेड’ (SIRECL) और ‘सहारा हाउसिंग इन्वेस्टमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड’ (SHICL) का मामला तीसरा बड़ा मामला है जिसमें सेबी ने सहारा की ओर से जनता से गलत तरीके से एकत्र किए गए अरबों रुपये को लौटाने का आदेश 24 नवंबर, 2010 को दिया था, किंतु सहारा समूह के प्रमुख सुब्रत राय के द्वारा इसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती दिए जाने के कारण मामला विचाराधीन है। फिर भी उच्चतम न्यायालय ने सेबी की कार्यवाहियों को उचित माना है और जनता से एकत्र किए गए धन को वापस न कर पाने के कारण सुब्रत राय सहारा पिछले 4 मार्च, 2014 से उच्चतम न्यायालय की अभिरक्षा (जेल) में हैं।
  •  सहारा प्रकरण के बाद से ही सेबी को सशक्त करने की बात उठने लगी थी इसलिए प्रतिभूति कानून (संशोधन) अधिनियम, 2014 के प्रावधानों को प्रतिभूति विधियां (संशोधन) अध्यादेश, 2014 के रूप में 28 मार्च, 2014 से ही लागू किया गया था।
  •  नए कानून के द्वारा पुराने सेबी कानून, 1992 की धाराओं 11,15,26,28 और 34 में या तो नए प्रावधान जोड़े गए हैं या संशोधन किए गए हैं।
  •  अब सेबी किसी मामले की जांच या अन्वेषण में किसी भी व्यक्ति, संस्था, कंपनी या बैंक से किसी भी सूचना या दस्तावेज की मांग कर सकता है।
  •  सेबी द्वारा जब्त की गई धनराशि को ‘निवेशक सुरक्षा एवं शिक्षा कोष’ (Investor Protection and Education Fund – IPEF) में जमा किया जाएगा [नई धारा 11(5) ।
  •  अब 100 करोड़ रुपये या अधिक के निवेश की योजना को ‘सामूहिक निवेश योजना’ माना जाएगा।
  •  सेबी का मामला अब ‘न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी’ के बजाए ‘मुंबई में नामित मजिस्ट्रेट या न्यायालय के विशेष न्यायाधीश’ के द्वारा सुना जाएगा और निर्णीत किया जाएगा।
  •  धारा 26 में नया प्रावधान जोड़कर विशेष न्यायालय के गठन के लिए प्रावधान किया गया है। इसकी स्थापना केंद्र सरकार के द्वारा की जाएगी और जिला एवं सत्र न्यायाधीश के स्तर का कोई न्यायाधीश राज्य के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से इसका न्यायाधीश नियुक्त किया जाएगा।
  •  विशेष न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील उच्च न्यायालय के द्वारा सुनी जाएगी।
  •  अब जुर्माना की राशि कम से कम एक लाख रुपये होगी, जो 1 करोड़ रुपये तक हो सकती है। अन्य विशेष मामलों में यह राशि 10 लाख रुपये से लेकर 25 करोड़ रुपये तक हो सकती है।
  •  धारा 15 में नया प्रावधान जोड़कर यह प्रावधान किया गया है कि कोई व्यक्ति, जिसके विरुद्ध इस कानून के अंतर्गत सेबी या प्राधिकारी (जज) ने कार्यवाही प्रारंभ की है, समझौते के लिए आवेदन कर सकता है और क्षतिपूर्ति करने की शर्त पर समझौते को अंतिम रूप दिया जा सकता है।
  •  धारा 28 में धारा 28-A को जोड़कर यह प्रावधान किया गया है कि यदि कोई व्यक्ति न्यायाधीश के द्वारा आदेशित जुर्माना देने में विफल रहता है या सेबी द्वारा धन वापस करने के आदेश का पालन करने में असफल रहता है या अन्य देय धन को जमा करने में विफल रहता है तब वसूली अधिकारी उस व्यक्ति की सभी चल या अचल संपत्ति, बैंक खाता संचालन को जब्त कर सकता है, ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार करके कारावास में भेज सकता है और देय धनराशि की वसूली कर सकता है।
  •  उपर्युक्त मूल परिवर्तन के अनुरूप अन्य संबंधित कानूनों को भी संशोधित किया गया है।

FOREST REPORT 2013 ,SAMVEG IAS DEHRADUN

बढ़ती हुई जनसंख्या की वन एवं वृक्ष आधारित आवश्यकताओं की पूर्ति, धरती को बाढ़, सूखा एवं भू-क्षरण से बचाने तथा प्राण वायु ऑक्सीजन की उपलब्धता सुनिश्चित कर मानव जाति के अस्तित्व की रक्षा हेतु वनों के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है। भारत में सर्वप्रथम वन रक्षा हेतु पहला कदम वर्ष 1855 में भारतीय वानिकी चार्टर (Charter of Indian Forestry) की उद्घोषणा के साथ उठाया गया। यह चार्टर पेगू के वन अधीक्षक (Forest Superintendent) डॉ. क्लेलैंड (Dr. Clelland) की अनुशंसा पर जारी किया गया था। वर्ष 1856 में डेट्रीच ब्रैंडीस (Dietrich Brandis) को पेगू का वन अधीक्षक नियुक्त किया गया तथा 1 अप्रैल, 1864 को प्रथम महावन निरीक्षक (Inspector General of Forest) के पद पर इनकी नियुक्ति के साथ भारत में वैज्ञानिक वानिकी की नींव पड़ी। इसी कारण इन्हें भारतीय वानिकी का पिता(Father of Indian Forestry) कहा जाता है। ब्रिटिश काल के दौरान ही डॉ. वोल्कर की अनुशंसा पर वर्ष 1894 में भारत की पहली राष्ट्रीय वन नीति प्रकाशित की गई। इस नीति की कमियों को दूर करने हेतु वर्ष 1952 मेंस्वतंत्र भारत की पहली राष्ट्रीय वन नीति तैयार की गई। इस नीति में वन संसाधनों के संरक्षण एवं विकास पर बल देते हुए देश के एक-तिहाई भू-भाग को वनाच्छादित करने का लक्ष्य रखा गया था। तत्पश्चात भारत केवन संरक्षण अधिनियम1980 तथा राष्ट्रीय वन नीति1988 में वन संसाधनों के संरक्षण एवं वनीकरण हेतु स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए गए हैं, परंतु भारतीय वन क्षेत्र पर अत्यधिक दबाव बना हुआ है। अतः वन क्षेत्र में वृद्धि एवं कमी के आंकड़ों की जानकारी न केवल सरकार के लिए वरन नागरिक समाज के लिए भी आवश्यक हो जाती है। इसी संदर्भ में देश के वनावरण एवं वृक्षावरण की निगरानी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाती है तथा इसी परिप्रेक्ष्य में देहरादून स्थित भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग (Department of Forest Survey of India) द्वारा प्रत्येक दो वर्ष पर सुदूर संवेदन (Remote Sensing) आधारित उपग्रह चित्रण के माध्यम से देश में वनों एवं वृक्षों की स्थिति पर आधारित ‘भारत वन स्थिति रिपोर्ट’ (ISFR-India State of Forest Report) जारी की जाती है।
पहली भारत वन स्थिति रिपोर्ट-1987 (संदर्भ वर्ष 1981-83) में तैयार की गई थी। इस शृंखला की 13वीं भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2013 (ISFR- 2013) 8 जुलाई, 2014 को पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) प्रकाश जावड़ेकर द्वारा जारी की गई जो कि अक्टूबर, 2010 से जनवरी, 2012 के उपग्रह आंकड़ों पर आधारित है। उल्लेखनीय है कि 11वीं भारत वन स्थिति रिपोर्ट (ISFR-2009) जो कि फरवरी, 2010 में जारी की गई थी, से अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप रिपोर्ट तैयार होने के वर्ष को रिपोर्ट के शीर्षक में लिया जाने लगा है। भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2013 में भारतीय सुदूर संवेदन उपग्रह रिसोर्ससेट-I के सेंसर IRS-P6-LISS-III द्वारा 23.5 मी. के विभेदीकरण (Resolution) तथा 1:50,000 के मापक (न्यूनतम मानचित्रण योग्य क्षेत्र-1 हेक्टेयर) पर आधारित आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं। ज्ञातव्य है कि भारतीय परिस्थितियों के संदर्भ में अक्टूबर-दिसंबर का समय वनावरण मानचित्रण संबंधी उपग्रह आंकड़ों को प्राप्त करने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त (मेघ-मुक्त आकाशीय स्थिति के कारण) रहता है।
ISFR-2013 में भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग द्वारा हाल के समय में कराए गए विशिष्ट अध्ययनों के आधार परभारतीय वन की महत्त्वपूर्ण विशेषताएं, शस्यवानिकी में वृक्ष, नगरीय वृक्ष संसाधन एवं भारत के संघीय क्षेत्र एवं राज्यों में वन एवं वृक्ष संसाधन पर अतिरिक्त सामग्री भी प्रस्तुत की गई है।
ISFR-2013 के महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष
उपग्रहीय आंकड़ों (अक्टूबर, 2010- जनवरी, 2012) के विश्लेषण वन/टीओएफ (TOF-Tree Outside Forests) गणना तथा भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग द्वारा कराए गए ISFR-2013 के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं-
(i)  ISFR-2013 के अनुसार, देश में कुल वनावरण 69.79 मिलियन हेक्टेयर (697898 वर्ग किमी.) है जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 21.23 प्रतिशत है।
(ii) इस रिपोर्ट के अनुसार, देश में कुल वनावरण एवं वृक्षावरण (Forest and Tree Cover) 78.92 मिलियन हेक्टेयर (789164 वर्ग किमी.) है जो कि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 24.01 प्रतिशत है।
  • वृक्ष रेखा (Tree Line – 4000 मीटर ऊंचाई स्तर, जिससे ऊपर के क्षेत्र शीत मरुस्थल की भांति होते हैं तथा जो किसी भी प्रकार के वृक्ष की वृद्धि के लिए अनुपयुक्त हैं) से ऊपर के क्षेत्रों (182183 वर्ग किमी.) को हटाने पर यह बढ़कर 25.42 प्रतिशत हो जाता है।
  • उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय वन नीति, 1988 के अनुसार देश के एक-तिहाई अथवा 33.33 प्रतिशत क्षेत्र में (पहाड़ी क्षेत्रों में दो-तिहाई अथवा 66.67 प्रतिशत क्षेत्र में) वन अथवा वृक्षावरण होने आवश्यक हैं।
  • ISFR-2011 की तुलना में ISFR-2013 में 5871 वर्ग किमी. के वन क्षेत्र की वृद्धि हुई है।
(iii)          ISFR-2013 के अनुसार, देश में कुल वृक्षावरण (Tree Cover) 9.13 मिलियन हेक्टेयर (91266 वर्ग किमी.) है जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 2.78 प्रतिशत है।
(नोट : वनावरण का आकलन उपग्रहीय आंकड़ों के आधार पर सतत मानचित्रण के द्वारा किया जाता है जबकि वृक्षावरण के आकलन के लिए प्रतिदर्श प्रणाली अपनाई जाती है।)
(iv) ISFR-2011 की तुलना में ISFR-2013 में पहाड़ी एवं जनजातीय जिलों में वनावरण में क्रमशः 40 वर्ग किमी. एवं 2396 वर्ग किमी. की वृद्धि दर्ज की गई है।
(v) उत्तर-पूर्वी राज्यों में, जो देश के कुल वनावरण में लगभग एक-चौथाई का योगदान करते हैं, विगत आकलन की तुलना में 627 वर्ग किमी. के वनावरण की कमी दर्ज की गई।
(vi) इस रिपोर्ट में पहली बार वन आच्छादित सूचना को सर्वे ऑफ इंडिया टोपोशीट्स (Survey of India Toposheets) के ग्रीन वाश एरिया (Green Wash Area) के आधार पर संबद्ध (Inside) एवं बाह्य(Outside) क्षेत्रों में पृथक किया गया है।
  • सर्वे ऑफ इंडिया टोपोग्राफिक शीट्स पर कुछ क्षेत्रों को हल्के हरे रंग से प्रदर्शित किया गया है तथा इन्हें सामान्यतः ‘ग्रीन वाश एरिया’ के रूप में निर्दिष्ट किया जाता है।
(vii) ISFR-2011 की तुलना में ISFR-2013 में देश में मैंग्रोव आवरण (Mangrove Cover) में 34 वर्ग किमी. की कमी हुई।
(viii) भारतीय वनों के बाहर वृक्षों (TOF-Trees Outside Forests) का वृद्धिमान स्टॉक (Growing Stock) 5658.046 मिलियन घनमीटर आकलित किया गया है।
(ix) ISFR 2013 में 15 राज्य/संघीय क्षेत्र में उनके भौगोलिक क्षेत्र का 33 प्रतिशत से अधिक भाग वनाच्छादित है जबकि इनमें से 8 राज्य एवं संघशासित क्षेत्र ऐसे हैं जिनके भौगोलिक क्षेत्र का 75 प्रतिशत से अधिक भू-भाग वनाच्छादित है।
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अभिलिखित वन क्षेत्र एवं वनावरण
अभिलिखित वन क्षेत्र (Recorded Forest Area) के अंतर्गत सरकारी रिकॉर्डों में ‘वन’ के रूप में अभिलिखित समस्त भौगोलिक क्षेत्र शामिल होता है, चाहे उसमें वनावरण/वृक्षावरण हों या न हों। इसमें मुख्यतः भारतीय वन अधिनियम1927 के तहत संस्थापित आरक्षित वन क्षेत्र (Reserved Forest Area) तथा संरक्षित वन क्षेत्र (Protected Forest Area) आते हैं। साथ ही इसमें राज्यों के अधिनियमों द्वारा संस्थापित और राजस्व रिकॉर्डों में वन के रूप में अभिलिखित क्षेत्र भी शामिल होते हैं जिन्हें अवर्गीकृत वन (Unclassed Forest) कहा जाता है।
दूसरी ओर, भारत वन स्थिति रिपोर्ट (ISFR) में प्रयुक्त वनावरण (Forest Cover) क्षेत्र के तहत एक हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल वाले ऐसे समस्त भौगोलिक क्षेत्रों (अभिलिखित वन के भीतर और बाहर सभी क्षेत्रों) को शामिल किया जाता है जहां वृक्ष छत्र घनत्व (Tree Canopy Density) 10 प्रतिशत से अधिक हो। इसके तहत मैंग्रोव वन क्षेत्र भी शामिल होते हैं। इसे तीन भागों में बांटा जाता है :
  1. अति सघन वन (VDF-Very Dense Forest), जिनका वृक्ष छत्र घनत्व 70 प्रतिशत से अधिक होता है;
  2. मध्यम सघन वन (MDF – Moderately Dense Forest), जिनका वृक्ष छत्र घनत्व 40-70 प्रतिशत के बीच होता है; तथा
  3. खुले वन (OF-Open Forest), जिनका वृक्ष छत्र घनत्व 10-40 प्रतिशत के मध्य होता है।
उल्लेखनीय है कि 10 प्रतिशत से कम वृक्ष छत्र घनत्व वाली निम्नस्तरीय वन भूमि को वनावरण में शामिल नहीं किया जाता तथा इन्हें झाड़ी (Scurb) की श्रेणी में रखते हैं। ISFR- 2013 के अनुसार, देश में झाड़ियों का क्षेत्रफल 41,383 वर्ग किमी. है जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का 1.26 प्रतिशत है।
वृक्षावरण (Tree Cover)
अभिलिखित वन क्षेत्र के बाहर के तथा 1 हेक्टेयर क्षेत्रफल से कम क्षेत्र वाले वृक्षीय क्षेत्रों (वनावरण क्षेत्र के अतिरिक्त) को वृक्षावरण (Tree Cover) क्षेत्र के अंतर्गत शामिल किया जाता है। भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग द्वारा देश में वर्ष 2001 से वृक्षावरण का आकलन किया जा रहा है। वर्तमान वृक्षावरण आकलन वर्ष 2006 से 2012 के दौरान देश के 179 प्रतिदर्श जिलों के 28,116 प्रतिदर्श प्लॉटों के आंकड़ों के अध्ययन पर आधारित है।

वृक्षावरण एवं टीओएफ

वृक्षावरण (Tree Cover) एवं टीओएफ (TOF-Tree Outside Forest) दो पृथक पद हैं, परंतु ये दोनों एक-दूसरे से निकटता से जुड़े हैं। टीओएफ के तहत अभिलिखित वन क्षेत्र से बाहर के सभी वृक्षीय क्षेत्रों को शामिल किया जाता है। 1.0 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र वाले टीओएफ को तो उपग्रहीय आंकड़ों के आधार पर वनावरण में शामिल कर लिया जाता है जबकि शेष (1.0 हेक्टेयर से कम क्षेत्र वाले) टीओएफ वृक्षावरण के संघटक रहते हैं।
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ISFR-2013 में ISFR-2011 की तुलना में वनावरण में सर्वाधिक वृद्धि पश्चिम बंगाल में (3810 वर्ग किमी.) में तथा सर्वाधिक कमी नगालैंड (274 वर्ग किमी.) में हुई है।
ISFR-2013 के अनुसार, क्षेत्रफल की दृष्टि से सर्वाधिक वनावरण वाले 5 राज्य क्रमशः मध्य प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र एवं ओडिशा हैं जबकि क्षेत्रफल की दृष्टि से सर्वाधिक वनावरण वाले 5 संघीय क्षेत्रक्रमशः अंडमान व निकोबार, दादरा व नगर हवेली, दिल्ली, पुडुचेरी तथा लक्षद्वीप हैं। सर्वाधिक वनावरण प्रतिशतता वाले 5 राज्य/संघीय क्षेत्र क्रमशः मिजोरम (90.38%) लक्षद्वीप (84.56%), अंडमान व निकोबार द्वीप समूह (81.36%) अरुणाचल प्रदेश (80.39%) तथा नगालैंड (78.68%) हैं। सर्वाधिक वनावरण प्रतिशतता वाले भारत के 5 राज्य क्रमशः मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मेघालय एवं मणिपुर हैं जबकि न्यूनतम वनावरण प्रतिशतता वाले भारत के 5 राज्य क्रमशः पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश एवं बिहार हैं। सर्वाधिक वनावरण प्रतिशतता वाले भारत के 4 संघीय क्षेत्र क्रमशः लक्षद्वीप, अंडमान व निकोबार, दादरा व नगर हवेली तथा चंडीगढ़ हैं। वृक्षावरण की दृष्टि से ISFR-2013 मेंसर्वाधिक क्षेत्रफल वाले 5 राज्य क्रमशः महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, जम्मू एवं कश्मीर तथा आंध्र प्रदेश हैं जबकि न्यूनतम क्षेत्रफल वाले 5 राज्य क्रमशः सिक्किम, त्रिपुरा, मिजोरम, मणिपुर एवं गोवा हैं। भौगोलिक क्षेत्र के प्रतिशत के रूप में सर्वाधिक वृक्षावरण वाले 5 राज्य क्रमशः गोवा, केरल, गुजरात, तमिलनाडु एवं जम्मू एवं कश्मीर हैं। संघीय क्षेत्रों में सर्वाधिक वृक्षावरण प्रतिशत क्रमशः लक्षद्वीप, चंडीगढ़, दमन व दीव तथा दिल्ली में हैं। कुल वृक्षावरण एवं वनावरण क्षेत्र की दृष्टि से सर्वाधिक क्षेत्रफल वाले 5 राज्य क्रमशः मध्य प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ एवं ओडिशा हैं जबकि इसी दृष्टि से भौगोलिक क्षेत्र के सर्वाधिक प्रतिशत वाले 4 राज्य/संघीय क्षेत्र क्रमशः लक्षद्वीप (97.06%), मिजोरम (91.44%), अंडमान एवं निकोबार (81.85%) तथा अरुणाचल प्रदेश (81.18%) हैं।
पहाड़ी जिलों में वनावरण
‘पहाड़ी क्षेत्रों और पश्चिमी घाट विकास कार्यक्रम’ के लिए योजना आयोग द्वारा निर्धारित मानदंडों के अनुसार समुद्र तल से 500 मीटर से अधिक ऊंचाई (Altitude) वाले तालुका पहाड़ी श्रेणी में आते हैं तथा किसी जिले में ऐसे तालुकाओं का कुल क्षेत्रफल जिले के क्षेत्रफल के आधे से अधिक होने पर वह ‘पहाड़ी जिला’ (Hill District) कहलाता है। इस परिभाषा के तहत देश के 16 राज्यों/संघीय क्षेत्रों में कुल 124 पहाड़ी जिले हैं।
ISFR-2013 के अनुसार, देश के पहाड़ी जिलों में कुल वनावरण 281,335 वर्ग किमी. (ISFR-2011 के आकलन की तुलना में 40 वर्ग किमी. अधिक) है जो कि इन जिलों के भौगोलिक क्षेत्रफल का 39.75 प्रतिशत है।
उल्लेखनीय है कि अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा एवं उत्तराखंड के सभी जिले पहाड़ी हैं, तथा इन नौ राज्यों में वनावरण इनके समग्र भौगोलिक क्षेत्रफल का 62.86 प्रतिशत है।
जनजातीय जिलों में वनावरण
भारत सरकार के ‘एकीकृत जनजातीय विकास कार्यक्रम’ (Integrated Tribal Development Programme) के तहत देश के 26 राज्यों/संघीय क्षेत्रों के 189 जिलों को जनजातीय जिले (Tribal District) की श्रेणी में रखा गया है। इन जनजातीय जिलों में ISFR-2013 के अनुसार कुल वनावरण 415,491 वर्ग किमी. (ISFR-2011 के आकलन से 2396 वर्ग किमी. वृद्धि) है जो कि इन जिलों के भौगोलिक क्षेत्रफल का 37.37 प्रतिशत है।
उत्तर-पूर्वी राज्यों में वनावरण
देश के पूर्वोत्तर भाग के आठ राज्यों नामतः अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, सिक्किम एवं त्रिपुरा में देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का मात्र 7.98 प्रतिशत भू-भाग है जबकि इनमें देश के कुल वनावरण का लगभग एक-चौथाई भाग स्थित है। ISFR- 2013 के अनुसार, इन राज्यों में कुल वनावरण172,592 वर्ग किमी(ISFR-2011 की तुलना में 627 वर्ग किमी. कम) है जो कि इनके कुल भौगोलिक क्षेत्र का65.83 प्रतिशत है।
विभिन्न उच्चावच (Altitude) क्षेत्रों में वनावरण
ISFR-2013 में विभिन्न उच्चावच (समुद्र स्तर से ऊंचाई) क्षेत्रों में वनावरण के आकलन हेतु शटल रडार टोपोग्राफी मिशन (SRTM) डिजिटल एलीवेशन मॉडल (90 मी. विभेदीकरण क्षमता) का प्रयोग किया गया है। विभिन्न उच्चावच क्षेत्रों में वनावरण की स्थिति निम्न सारणी में प्रदर्शित है-
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विभिन्न भूआकृतिक क्षेत्रों में वृक्षावरण
ISFR-2013 के अनुसार देश 14 भूआकृतिक क्षेत्रों (Physiographic Zones) में क्षेत्रफल की दृष्टि से सर्वाधिक वृक्षावरण क्रमशः पश्चिमी तट (10,391 वर्ग किमी.), मध्य उच्चभूमियां (10,127 वर्ग किमी.)पूर्वी दक्कन(9,644 वर्ग किमी.), पश्चिमी हिमालय (9,035 वर्ग किमी.) एवं उत्तरी मैदानों (8,609 वर्ग किमी.) क्षेत्र में है। भौगोलिक क्षेत्र के प्रतिशत के रूप में सर्वाधिक वनावरण क्रमशः पश्चिमी तट (8.57%), पश्चिमी घाट(5.79%), पूर्वी तट (3.58%), उत्तरी मैदानों (2.91%) तथा पूर्वी दक्कन (2.87%) में है।
उल्लेखनीय है कि पूर्वी हिमालय क्षेत्र में मात्र 448 वर्ग किमी. (0.60%) का वृक्षावरण है जो कि सभी भूआकृतिक क्षेत्रों में सबसे कम है। यहां वृक्षावरण कम होने का प्रमुख कारण इसके अधिकांश क्षेत्रों को वनावरण के तहत शामिल किया जाना है।
मैंग्रोव वन
मैंग्रोव (Mangrove) लवण सहिष्णु वनस्पति समुदाय हैं जो विश्व के ऐसे उष्णकटिबंधीय एवं उपोष्ण कटिबंधीय अंतःज्वारीय (Intertidal) क्षेत्रों में पाए जाते हैं जहां वर्षा का स्तर 1000-3000 मिमी. के मध्य एवं ताप का स्तर 26-35oC के मध्य हो।
इन वनों को पृथ्वी पर आर्द्रभूमियों (Wet-lands) की जैवविविधता का संरक्षक माना जाता है। जैविक दबाव एवं प्राकृतिक आपदाएं मैंग्रोव पारिस्थितिक तंत्र की शत्रु हैं। तटों के सहारे औद्योगिक क्षेत्रों में वृद्धि तथा घरेलू एवं औद्योगिक अपशिष्ट विसर्जन के कारण यह क्षेत्र प्रदूषित हो रहे हैं।
ISFR-2013 के अनुसार, भारत में मैंग्रोव आवरण विश्व की संपूर्ण मैंग्रोव वनस्पति का लगभग 3 प्रतिशत है जो कि देश के 12 तटीय राज्यों/संघीय क्षेत्रों के 4628 वर्ग किमी. (ISFR- 2013 की तुलना में 34 वर्ग किमी. कम) क्षेत्र में फैला हुआ है जो कि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 0.14 प्रतिशत है। इसमें अति सघन मैंग्रोव 1351 वर्ग किमी. (कुल मैंग्रोव क्षेत्र का 29.20%), मध्यम सघन मैंग्रोव 1457 वर्ग किमी. (31.49%) तथा खुले मैंग्रोव 1819 वर्ग किमी. (39.31%) क्षेत्र में फैले हुए हैं।
भारत में सर्वाधिक मैंग्रोव आच्छादित चार राज्य/संघीय क्षेत्र क्रमशः पश्चिम बंगाल (2097 वर्ग किमी.), गुजरात (1103 वर्ग किमी.), अंडमान एवं निकोबार द्वीपसमूह (604 वर्ग किमी.) तथा आंध्र प्रदेश (352 वर्ग किमी.) हैं जबकि चार सर्वाधिक मैंग्रोव आच्छादित जिले क्रमशः दक्षिण चौबीस परगना-प. बंगाल (2069 वर्ग किमी.), कच्छ-गुजरात (789 वर्ग किमी.), अंडमान-अंडमान एवं निकोबार द्वीपसमूह (601 वर्ग किमी.) तथा पूर्वी गोदावरी (188 वर्ग किमी.) हैं। उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल का संपूर्ण मैंग्रोव आच्छादित क्षेत्र सुंदरबन डेल्टा क्षेत्र में अवस्थित है।
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वृद्धिमान स्टॉक
ISFR-2013 के तहत देश में राष्ट्रीय स्तर तथा राज्य स्तर पर वनों एवं वनों के बाहर वृक्षों (TOF) तथा विभिन्न भूआकृतिक क्षेत्रों में टीओएफ के वृद्धिमान स्टॉक (Growing Stock) का भी आकलन प्रस्तुत किया गया है जिसके अनुसार, देश में वृक्षों का वृद्धिमान स्टॉक 5,658.046 मिलियन घनमीटर अनुमानित है जिसमें 4,1173.362 मि. घनमीटर अभिलिखित वन क्षेत्र के भीतर तथा 1,484.684 मि. घनमीटर टीओएफ में आकलित है।
भूआकृतिक क्षेत्रों में टीओएफ में सर्वाधिक वृद्धिमान स्टॉक क्रमशः पूर्वी दक्कन, पश्चिमी हिमालय, पश्चिमी तट, दक्षिणी दक्कन एवं पश्चिमी घाट क्षेत्र में आकलित है।
राज्यों/संघीय क्षेत्रों में वनों में सर्वाधिक वृद्धिमान स्टॉक क्रमशः उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में जबकि टीओएफ में सर्वाधिक वृद्धिमान स्टॉक क्रमशः जम्मू एवं कश्मीर, महाराष्ट्र एवं गुजरात में आकलित है। समग्रतः सर्वाधिक वृद्धिमान स्टॉक क्रमशः अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखंड एवं छत्तीसगढ़ में आकलित है।
प्रमुख वनस्पति प्रजातियों के संदर्भ में कुल फैलाव (Total Volume) के संदर्भ में टीओएफ में सर्वाधिक वृद्धिमान प्रजाति Mangifera indica (11.41%) है जिसके पश्चात Azadirachta indica (7.08%) एवं Cocos nucifera (6.08%) का स्थान है।
ISFR-2011 में वर्ष 2004 के आंकड़ों के अनुसार, वन भूमि में कार्बन स्टॉक 6,663 मिलियन टन के स्तर पर था जो ISFR-2013 में वर्ष 2011 की तुलना में 278 मिलियन टन की वृद्धि के साथ 6,941 मिलियन टन के स्तर पर है।
भारतीय वनों की महत्त्वपूर्ण विशेषताएं
भारतीय वनों की महत्त्वपूर्ण विशेषताएं ‘राष्ट्रीय वन सूची’ (National Forest Inventory) के आधार पर विश्लेषित की जाती हैं। राष्ट्रीय वन सूची का प्रारंभ वर्ष 2002 में किया गया था। इस सूची के तहत देश 14 भूआकृतिक क्षेत्रों में स्तरीकृत (Stratified) किया गया है तथा वन एवं टीओएफ की विस्तृत सूची यादृच्छिक (Randomly) ढंग से चुने गए 60 जिलों के द्विवर्षीय चक्रीय विवरण पर आधारित है। राष्ट्रीय वन सूची तैयार करने के दौरान निरपेक्ष वृक्ष मापन के अतिरिक्त वन क्षेत्र के तहत अन्य महत्त्वपूर्ण मापदंडों (भूमि उपयोग वैविध्य पुनरुद्भवन की प्रबलता, आग की दुर्घटना, फसलों की बर्बादी, चराई-बास संबंधी सूचना आदि) पर भी सूचना इकट्ठा की जाती है। ISFR- 2013 में इन संदर्भों पर दी गई समस्त सूचनाएं 179 जिलों में वर्ष 2004 से 2012 के मध्य एकत्रित किए गए क्षेत्र-आधारित आंकड़ों पर निर्भर है।
  • अभिलिखित वन क्षेत्र को भूमि उपयोग की दृष्टि से निम्नलिखित सारणी में प्रस्तुत किया गया है-
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ISFR 2013 में अभिलिखित वन क्षेत्र को पुनरुद्भवन प्रबलता (Intensity of Regeneration) के आधार पर ‘समुचित’ (Adequate), ‘अपर्याप्त’ (Indequate), ‘शून्यमान’ (Absent) एवं ‘अनुकूल नहीं’ (Not Applicable) क्षेत्रों में बांटा गया है।
इस आकलन के अनुसार 48 प्रतिशत वन क्षेत्र ‘समुचित पुनरुद्भवन’ वाले, 24 प्रतिशत वन क्षेत्र ‘अपर्याप्त पुनरुद्भवन’ वाले, 10 प्रतिशत वन क्षेत्र ‘शून्यमान पुनरुद्भवन’ वाले तथा 18 प्रतिशत वन क्षेत्र ‘पुनरुद्भवन के अनुकूल नहीं’ क्षेत्र के अंतर्गत हैं।
  • 10,265 वर्ग किमी. वन क्षेत्र आग की घटनाओं से गंभीर रूप से प्रभावित हैं, जो कुल अभिलिखित वन क्षेत्र का 1.33 प्रतिशत है।
  • 104,427 वर्ग किमी. क्षेत्र चराई से गंभीर रूप से प्रभावित हैं जो कुल अभिलिखित वन क्षेत्र का 13.53 प्रतिशत है।
  • 17,289 वर्ग किमी. वन क्षेत्र मृदा अपरदन की दृष्टि से अत्यधिक गंभीर है जो कुल अभिलिखित वन क्षेत्र का 2.24 प्रतिशत है।
बांस (Bamboo) देश के वनों के साथ-साथ गैर वन क्षेत्रों में भी पाया जाने वाला महत्त्वपूर्ण गैर-लकड़ी (Non Wood) वन संसाधन है। बांस घास परिवार (Poaceae Gramineae) से संबंधित है। भारत में बांसों की 23 वंशों (Genera) से संबंधित 125 देशीय (Indigenous) और 11 विदेशी (Exotic) प्रजातियों (Species) की पहचान हुई है।
कुल अभिलिखित वन क्षेत्र के 70 प्रतिशत भाग पर बांस नहीं है तथा 7 प्रतिशत भाग पर बांस की सघनता ठीक-ठाक है।
नगरीय वृक्ष संसाधन
टीओएफ के तहत वृक्ष न केवल नगरीय पर्यावरण के लिए ही महत्त्वपूर्ण हैं बल्कि यहां अधिवासित गरीब लोगों के ईंधन एवं अन्य जरूरतों के भी महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। ISFR 2013 में पहली बार देश में नगरीय वृक्ष संसाधनों(Urban Tree Resources) की स्थिति पर भी सूचना प्रस्तुत की गई है जो कि वर्ष 2006 से 2012 के दौरान 179 जिलों के 6152 यूएफएस (UFS : Urban Frame Survey) ब्लाकों के सर्वे पर आधारित है।
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राष्ट्रीय स्तर पर कुल नगरीय वृक्षावरण 12,790 वर्ग किमी. है जो कुल नगरीय क्षेत्र का 16.40 प्रतिशत है। तमिलनाडु राज्य 1,509 वर्ग किमी. क्षेत्र के नगरीय वृक्षावरण के साथ अग्रणी स्थान पर है। इस दृष्टि से इसके बाद क्रमशः महाराष्ट्र (1,373 वर्ग किमी.), कर्नाटक (1,276 वर्ग किमी.) एवं केरल (1,241 वर्ग किमी.) का स्थान है।
सिक्किम में 0.261 वर्ग किमी. का नगरीय वृक्षावरण है जो 28 राज्यों में न्यूनतम है। सिक्किम के बाद न्यूनतम वृक्षावरण क्षेत्र वाले राज्य क्रमशः अरुणाचल प्रदेश (6 वर्ग किमी.) एवं मणिपुर/त्रिपुरा (प्रत्येक में 15 वर्ग किमी.) हैं। सर्वाधिक नगरीय वृक्षावरण क्षेत्र वाला संघशासित प्रदेश दिल्ली है जबकि न्यूनतम नगरीय वृक्षावरण क्षेत्र वाला संघ शासित प्रदेश अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह है।
सर्वाधिक नगरीय वृक्षावरण अनुपात वाले चार राज्य/संघशासित प्रदेश इस प्रकार हैं-लक्षद्वीप (40.55%), गोआ (40.55 प्रतिशत), केरल (38.17%) एवं कर्नाटक (24.69%)। न्यूनतम नगरीय वृक्षावरण अनुपात वाला राज्यअरुणाचल प्रदेश है जबकि न्यूनतम नगरीय वृक्षावरण अनुपात वाला संघशासित प्रदेश अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह है।
 ISFR 2013 में उत्तर प्रदेश की स्थिति
ISFR 2013 के अनुसार, उत्तर प्रदेश में अभिलिखित वन क्षेत्र (Recorded Forest Area) 16,583 वर्ग किमी. है जो इसके भौगोलिक क्षेत्र का 6.88 प्रतिशत है तथा भारत के कुल वन क्षेत्र का 2.15 प्रतिशत है। अभिलिखित वनों में 70.31 प्रतिशत आरक्षित वन, 8.56 प्रतिशत संरक्षित वन और 21.12 प्रतिशत अवर्गीकृत वन हैं।
23cotnov14
अक्टूबर, 2010से जनवरी, 2012 के दौरान के सैटेलाइट आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर उत्तर प्रदेश में कुल वनावरण 14,349 वर्ग किमीहै जो राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 5.96 प्रतिशत है। इसमें 1,623 वर्ग किमी. क्षेत्र अति सघन वन (0.67 प्रतिशत), 4,550 वर्ग किमी. क्षेत्र मध्यम सघन वन (1.89 प्रतिशत) तथा 8,176 वर्ग किमी. क्षेत्र खुले वन (3.39 प्रतिशत) के अंतर्गत है। इनके अतिरिक्त 806 वर्ग किमी. क्षेत्र (0.33 प्रतिशत) पर राज्य में झाड़ियां (Scrub) हैं। ISFR 2011 के संशोधित आंकड़ों की तुलना में राज्य में वनावरण में 11 वर्ग किमी. की वृद्धि हुई है।
उत्तर प्रदेश में कुल वृक्षावरण 6,895 वर्ग किमी. है जो राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 2.86 प्रतिशत है। इस प्रकार, राज्य में कुल वनावरण एवं वृक्षावरण 21,244 वर्ग किमी. है जो कि राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 8.82 प्रतिशत है।
उत्तर प्रदेश में कुल नगरीय वृक्षावरण 816 वर्ग किमी. है जो राज्य के कुल नगरीय क्षेत्र का 12.45 प्रतिशत है।

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Samveg IAS is conducting one complete free test for benefit of candidate to do actual practice in examination condition as per ukpsc standard consisting of 

1) General Studies-150 Qs-2hrs

2) CSAT-100 Qs-2hrs

Timing: 26th Nov,2014
For participation in test, registration before 25th nov is must on 8475904943 or at samveg ias office.

Discussion and feed back will be given on same day.

SAMVEG IAS
A-158,NEHRU COLONY,DHARAM PUR ,DEHRADUN,UK

Indian Railways Going Green the Bio-Diesel Way

With growth in the world economy the demand for energy and transportation has been increasing.  The BRICS nations have been growing and China and India today are consuming higher levels of fuel to sustain their growing economies.  The overall energy requirement in India is likely to increase from 549 Million tonne oil equivalent (mtoe) in 2011-12 to 1433 mtoe by 2031-32, a 2.6 fold increase.  The transport sector which currently consumes 86 mtoe which is about 16% of the energy consumption is likely to increase to 360 mtoe by 2031-32 and would be 25% of the total energy consumption.  The transport sector would grow by 4.2 times.  The transport sector consumed 57% of the oil in 2011-12 and this would go up-to 73% by 2031-32 in the business as usual scenario. About  97% of the fuel basket for transportation is based on petroleum and the balance 3% is equally shared by CNG, bio-fuels and electricity.  As per the current trends this mix would continue even in 2031-32.  If we look at the consumption pattern in the transport sector, the road vehicles consume 93% of the oil, 3% each is consumed by Railways and Airways and the balance 1% by waterways. 

            Indian Railways (IR) today has the largest passenger operation in the world and carries about 23 million passengers every day.  Recently it has also entered the billion tonne club and is expected to carry more than 1100 million tonne of freight traffic in the current year.  For providing transport services Indian Railways consumes 2.7 billion liters of high speed diesel and 13.9 billion units of electricity. Most of the electricity consumed is also produced using fossil fuels like coal, diesel etc. Higher use of fossil fuels means higher carbon foot prints in transpiration.  It is in this context that IR has envisaged in its vision 2020 to ensure that 10% of its energy needs are met through renewable.  Bio-diesel is a substitute for diesel and can be sourced from various raw materials.  It is green and renewable and can be blended with diesel and used without any modification to the locomotives. Use of B5 blend translates into a requirement of about 0.13 billion litres.   However, volatility of the oil market also impacts the demand/supply of bio-diesel since it is a substitute for diesel.

            In this context a bio-fuels 2014 conference which was recently held in Delhi on 5thNovember, 2014 was relevant for the transport sector.  The theme of the conference was “Energize Growth & Business opportunities in Biodiesel Sector in India”. It provided opportunity for policy makers, researchers, consultants, industry professionals, consumers, manufacturers and sellers from both private and public sector to interact and share their views on a common platform.  The inaugural address was delivered by the Hob’ble Union Minister of Railways, The Hon’ble Union Minister for Shipping Road Transport and National Highways, Rural Development and Panchayati Raj the Hon’ble Minister of State for Railways and Dr. Suresh Prabhu, ex. Power Minister, Government Of India. The meeting was also attended by the Chairman, Railway Board, Member Staff/Member Electrical, Ministry of Railways and other senior officials.  They stressed the importance of alternate fuels especially bio-fuels to reduce oil imports and carbon emissions. 

            Indian Railways has already conducted trials with 20% blending on diesel engine test bed at RDSO.  Field trials have also been done with B5/B10 and many units like Shakurbasti, Kharagpur, Perambur etc. have manufactured bio-diesel using small plants of upto 2000 literes per day. Railways also tried to plant Jatropha trees along the tracks but were not very successful.

            Issues of transportation, blending, storage and dispensing were deliberated during the conference.  The manufacturers gave their prospective on raw material, bio-diesel plants and technology for production.  Singapore based manufacturers JOil provided ideas on how to improve the yield and adopt best practices in production of seeds.  Bio cube from Australia show cased their technology for off grid bio diesel production with zero discharge. The socio-economic impact of bio-diesel was also deliberated upon by looking at linking science, living hoods and polices for sustainable bio fuels.  The conference tried to outline the road ahead for proliferation of bio fuel in the transport and Railway sector. 

Railways being the single largest bulk consumer have to set an example in the use of green fuels for sustainable transportation.  These efforts are essential as it is estimated that climate change mitigation and adaptation measures will cost around 5% of the world GDP and the developing countries would be worst affected.  

US-China climate deal lowers expectations of strong global climate deal in 2015

The US and announced a historic and sub-par bilateral pact on climate change ahead of the UN  negotiations that will lead to a new global agreement in 2015 in Paris. The US announced it would reduce its greenhouse gas (GHG) emissions by 24-26 per cent below 2005 levels by 2025, and China announced it would ensure its emissions peak by around 2030.

Together, historically the largest emitter of and the current biggest emitter China set an extremely low benchmark for other countries to follow under the Paris agreement. The move drained out hope of a 2015 climate agreement and consequent commitments from countries at Paris that could keep the global temperature rise below 2 degree Celsius.

But, on the flip side, it eased the pressure on India, a far smaller emitter than the US and China, to take on any onerous new commitments in the short run. While India is expected to also put up a domestically decided target soon, it will now have the example of the two countries to also commit to a low-range target. The target could be in terms of only a slower rate of growth of emission intensity or accompanied by a long-off target year for peaking when India’s emissions would peak — a year much beyond that China has announced.

For the National Democratic Alliance (NDA) government, still mulling the ideas advocated by its newly appointed minister, Suresh Prabhu to distance India from China and bring it closer to the West, fell apart with the announcement. The joint declaration showed that there were several major issues in the climate negotiations where China, India and the US actually saw eye to eye in aiming to protect their short-term economic interests though not necessarily fighting a robust fight to slow down climate change.

The higher end of the US target of cutting emissions by 26 cent cut by 2025 below 2005 levels is so low that it already has environmentalists up in arms. It translates to a mere 13.88 cent cut reduction below 1990 levels by 2025. The ball for a low-hanging fruit had been set in place earlier by EU announcing that it would only take a 40 per cent cut to its emissions below 1990 levels by 2030, of which it has already achieved around 20 per cent reduction. The US target fell even lower on relative terms to the EU targets. Its new target is less than half of that the EU has promised to take by 2030. Both the EU and the US promised targets are far below the upper range for emission cuts that the UN climate panel had set at 40 per cent four years ago and has now revised upwards.

THE GREEN ROUTE
ANNOUNCED TARGETS
  • US: 24-25% cut below 2005 levels by 2025
  • China: Peak its total emissions by 2030 and then go below
  • EU: 30-40% 1990 levels by 2030
EMISSION LEVELS IN 2012
  • US: 16.4 tonne CO2 per capita emissions
  • China: 7.1 tonne CO2 per capita emissions
  • India: 1.6 tonne CO2 per capita emissions
  • EU: 7.4 tonne CO2 per capita emissions
WHERE THEY STAND IN 2030
  • US: 12 tonne*CO2 per capita emissions with new target
  • China: 12 tonne*CO2 per capita emissions with new target
  • India: 4-7.5 tonne CO2 per capita emissions with business as usual
*Approximate figures
Source: UNFCCC, Centre for Science and Environment and Government of India
 
Centre for Science and Environment (CSE)’s Sunita Narain lambasted the US-China announcement, saying it was neither “historic” nor ambitious, but just a self-serving agreement between the world’s two biggest polluters. Extrapolating the numbers, CSE said the two countries would converge at 12 tonne per capita of carbon dioxide equivalent (CO2e) by 2030, leaving the world on a trajectory that would take global temperature rise beyond 3 degree by the end of the century.

CSE’s Chandra Bhushan said, “In fact, if India were to follow the principals of this (US-China) deal, then we need not do anything till 2040 and beyond. Our per capita emissions in 2030 will be less than 4 tonne per capita CO2e compared to 12 tonne per capita of the US and China,” he adds.

The Indian government’s earlier compendium of five modelling studies done by different institutions showed that India’s emissions remained between 4-7.5 tonne per capita by 2030. These studies were conducted before the climate change action plans were put in place and India took a target to cut emission intensity of its economy by 20-25 per cent by 2020.

Countries are required to formally volunteer their targets to fight climate change by March 2015 which will form part of the new global agreement to be signed in December 2015. This new agreement is to operate from 2020 onwards. For all practical purposes, the developed countries have already locked down the targets for the pre-2020 period and have steadfastly refused to up them. The US has a 17 per cent below 2005 level target which equals to less than 1 per cent reduction below 1990 levels. The EU has taken a 20 per cent below 1990 levels by 2020 target.

The US and China have announced that they will formally submit these new numbers as part of their voluntary targets for the 2015 agreement. While some countries have asked that such voluntary targets be assessed for their adequacy and equitable burden sharing between countries, and have objected to the move for different reasons. The joint announcement has revived memories of the 2009 Copenhagen deal that brought the BASIC countries (China, India, Brazil and South Africa) together with US, snubbing EU and its allies. The joint US-China decision along with the low EU target promises to now turn Paris 2015 agreement in to a low-ambition deal with the promise of review of the adequacy of such numbers still uncertain.

Subramanian panel suggests overhaul of green laws

The committee, constituted about three months ago to review laws related to environment and forest protection, has recommended some big-ticket changes to the rules and legislation. These include a complete overhaul of certain laws, special fast-track dispensation for power, mining and linear projects, self-certification of compliance by industry and diluting the powers of the (NGT).

The committee's recommendations, made in a report given to Environment & Forests Minister recently and reviewed by Business Standard, are for a revamp of regulations and laws concerning environment, both pollution and forest-related. Several of these changes have either already been in the pipeline or previously discussed within the ministry. Some of these were suggested (or partly processed) during the previous government's term.

The committee has suggested an umbrella law to help set up new national and state-level regulators that would also take the powers of the existing pollution control boards. The law - Environmental Management Act - would do away with the need for separate Acts to regulate air and water pollution that empower states to give the consent to operate and establish industrial units.

The national and state-level regulators should be able to use the know-how of existing technical institutions and universities, while they appraise projects, as well as monitor their operations.

The law, as recommended by the Subramanian committee, reduces the powers of the National Green Tribunal by setting up special district-level courts to deal with infringement of environmental laws and an administrative tribunal (not a judicial one) to review clearances. A judicial review of project clearances should be the final step, and not the first stage of appeal, the committee has suggested. It has also advised infringement of laws be distinguished and categorised and prosecution and arrest be permitted only in the case of serious offences.

The committee has backed industry's long-standing demand that a self-certification system for compliance with environmental laws be introduced. This system, to be built on 'utmost good faith', would depend largely on project developers disclosing information and being held accountable in post facto review of project operations in areas chosen on random sampling.

A shrunk no-go area for miners - limited to the existing protected wildlife areas and forest patches with more than 70 per cent cover - has also been recommended. The original no-go area plan included wildlife corridors, lands with high biodiversity value (regardless of forest cover) and lands that acted as catchment of rivers.

The high-level panel has also suggested an amendment to the to provide a clear exception for all linear projects - roads, pipelines and power lines, etc. The high-level panel had not been tasked to review either the Forest Rights Act or the National Green Tribunal Act.

It has also recommended that the powers of the National Board for Wildlife (which has outside experts on board) in reviewing any changes to national parks and sanctuaries be handed over to the ministry.

A special 'fast-track' overall dispensation for linear, mining and power projects has also been recommended, besides an overhaul of the forest clearance process to further reduce the time taken.

The panel has advised that more kinds of projects and those larger in size than the ones permitted today be appraised at the state level, and not reviewed at the Centre, for environmental integrity.

The panel has also advised the government to firm up a legal definition of what constitutes 'forests'. The present laws do not define the areas where forest laws should apply. The definition was derived by a Supreme Court order that had extended the application of forest laws to lands that might not be classified as forest land on government records.

The court order included lands where trees of more than a certain density grew, regardless of the type or ownership of lands.

The five-member group said, while the compensatory afforestation asked of project proponents should be increased, their role should be limited to providing finances to state forest departments, and not beyond that. It also suggested a five-fold revision of rates of 'net present value' (NPV) that companies are required to pay for use of forestlands.

The panel suggested that a specialised and separate environment service be created as another All-India Service cadre.

Among the ideas and changes in the report that the environment ministry has already begun to process or is discussing are dilution of NGT's role, dilution of the power of tribals to give consent to projects, the legal redefinition of forests, shrinking of the no-go areas and easing of the appraisal regime for power and other projects. The process for upward revision of the NPV rates had begun during the previous government's term, and a committee was constituted to suggest new rates.

The creation of a new national and state-level authority was pushed by former environment minister, Jairam Ramesh, as well. But it faced opposition from many quarters for a variety of reasons. The present government has already made several amendments to the existing regulations; and other critical changes the high-level panel has recommended are already in the pipeline. These include a single-window clearance system, instead of multiple channels, for projects.

WHAT THE PANEL RECOMMENDS
  • New umbrella law to subsume existing environment laws, the powers of pollution control boards
     
  • National and state-level authority to appraise and monitor projects
     
  • Fast-track clearance for power, mining and linear projects
     
  • Self-certification of compliance by projects and random review
     
  • Larger and more projects to be appraised at the state level
     
  • Amendment to Forest Rights Act to dilute consent powers
     
  • Administrative tribunal instead of judicial National Green Tribunal to review clearances on appeal
     
  • District-level courts to decide on infringement of green laws
     
  • Limited no-go forest areas where mining is banned
     
  • Definition of 'forests' to be formulated to reduce litigation
     
  • New environment service as part of All India Services cadre
     
  • Companies to pay more for compensatory afforestation but not be involved beyond financing


The committee has suggested an umbrella law to help set up new national and state-level regulators that would also take the powers of the existing pollution control boards

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