18 January 2018

बसंत उत्सव का आयोजन दिनांक 24 व 25 फरवरी को किया जाएगा। #Uttarakhand


प्रदेश में औद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिए Single-Window System लागू किया गया है। पूंजी निवेश को आकर्षित करने एवं इसे और कारगर बनाने के लिए SMS अलर्ट भेजने की व्यवस्था की गई है। 04 दिन में विभागाध्यक्ष को और 14 दिन में संबंधित सचिव को SMS अलर्ट जाएगा। इसके अलावा मॉनिटरिंग के लिए Dashboard भी बनाया जा रहा है। सिडकुल का डैशबोर्ड बन गया है। राज्य, जनपद और विभाग स्तर पर मॉनिटरिंग की अलग-अलग व्यवस्था की गई है। यह जानकारी मुख्य सचिव श्री Utpal Kumar Singh को सचिवालय में Single-Window System के मॉनिटरिंग कमेटी की बैठक में दी गई।
बताया गया कि अब आसानी से पता चल जाएगा कि कितने C.A.F. (Common Application Form) प्राप्त हुए। कितने का निस्तारण हुआ और कितने CAF लंबित हैं। यह भी पता चलेगा कि किस विभाग या अधिकारी द्वारा तय समय सीमा में निस्तारण नहीं किया गया। बैठक में बताया गया कि 10 करोड़ रुपये तक के पूंजी निवेश के प्रस्तावों का क्लीयरेंस जिला स्तर पर गठित समिति में किया जाता है। 10 करोड़ से अधिक के प्रस्ताव राज्य स्तर पर गठित समिति में रखे जाते हैं। सभी तरह की क्लीयरेंस तय समय सीमा में होती है। 15 दिन में सैद्धान्तिक सहमति और 30 से 60 दिन में संचालन की मंजूरी दी जाती है।
मुख्य सचिव ने निर्देश दिए कि भू-अभिलेखों को Digital बनाने के कार्य में तेजी लाएं। रजिस्ट्री, दाखिल खारिज की प्रक्रिया भी Online करें। जमीन को लीज पर देने या लीज पर लेने के लिए भी जरूरी है कि भू-अभिलेख Online हों। बताया गया कि Portal में ऐसी व्यवस्था की जा रही है कि जमीन का पूरा विवरण Online होगा। इसे राजस्व, स्टाम्प रजिस्ट्रेशन और बैंक से भी जोड़ा जाएगा।

मुख्यमंत्री श्री Trivendra Singh Rawat ने मुख्यमंत्री आवास स्थित जनता मिलन हाॅल में M.S.M.E. मंत्रालय, भारत सरकार एवं उद्योग विभाग, उत्तराखण्ड द्वारा आयोजित M.S.M.E. पखवाड़ा का शुभारम्भ किया। इस अवसर पर मुख्यमंत्री ने Start Up Uttarakhand Portal का उद्घाटन, मेन्टरशिप कार्यक्रम का शुभारम्भ एवं क्राफ्ट्स आॅफ उत्तराखण्ड के डाॅक्यूमेंट का विमोचन किया। अपने सम्बोधन में मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र ने कहा कि लघु एवं सूक्ष्म उद्योगों के लिए #Uttarakhand में परिस्थितियों के हिसाब से अपार संभावनाएं हैं। प्रदेश में छोटे उद्योगों के माध्यम से कम पूंजी में अधिक लोगों को रोजगार के साधन उपलब्ध होंगे। उन्होंने कहा कि 16 जनवरी से 30 जनवरी 2018 तक चलने वाले इस पखवाड़े का उद्देश्य लघु एवं सूक्ष्म उद्योगों के लिए लोगों में जागरूकता लाना एवं प्रोत्साहित करना है। मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र ने कहा कि स्वयं सहायता समूहों में राज्य में महिलाएं अच्छा कार्य कर रही हैं। उन्होंने कहा कि सरकार महिला समूह को लघु एवं सूक्ष्म उद्यमों के लिए ऋण योजना पर योजना बना रही है। उन्होंने कहा कि उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए Single-Window System के तहत 10 करोड़ रूपये तक के निवेशों के प्रस्ताव की मंजूरी का अधिकार जिलाधिकारियों को दिया गया है।
मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र ने कहा कि स्थानीय उत्पादों, हस्तशिल्प, हथकरघा एवं जैविक उत्पादों की डिमांड तेजी से बढ़ रही है। यूरोपीय देशों में हाथ से बुनी हुई वस्तुओं की मांग तेजी से बढ़ रही है। प्रदेश में इन उत्पादों की अपार संभावनाएं हैं, इनको बढ़ावा देने के लिए लोगों में कौशल विकास की जरूरत है। उन्होंने कहा कि राज्य में प्रिटिंग के क्षेत्र में अच्छा स्कोप है, एक प्रिटिंग प्रेस से लगभग 20 स्थानीय लोगों को रोजगार मिलता है। उन्होंने कहा कि कट पेपर पर प्रिटिंग करने से उसकी लागत थोड़ा अधिक होता है। लेकिन इससे स्थानीय उद्योग स्थापित होगा और राज्य का पैसा राज्य में ही रहेगा। उन्होंने कहा कि नेशनल हैण्डलूम एक्सपो में पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष अच्छी सेल हुई। पिछले वर्ष 03 करोड़ 50 लाख की सेल हुई जो इस वर्ष बढ़कर 05 करोड़ 62 लाख हुई।
मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र ने इस अवसर पर राज्य में लघु उद्यम, हथकरघा एवं हस्तशिल्प के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले उद्यमियों को पुरस्कृत भी किया। लघु उद्यम में उत्कृष्ट कार्य करने के लिए नैनीताल के श्री अभिषेक मिश्रा को प्रथम, देहरादून के श्री ललित मोहन उनियाल को द्वितीय एवं बागेश्वर के श्री दलीप सिंह खेतवाल एवं पिथौरागढ़ के श्री सतीश चन्द्र को तृतीय पुरस्कार दिया गया। हथकरघा के क्षेत्र में श्रेष्ठ कार्य करने के लिए चमोली की श्रीमती नर्वदा देवी को प्रथम, उत्तरकाशी के श्री केदार चन्द्र को द्वितीय एवं पिथौरागढ़ की श्रीमती प्रेमा देवी को तृतीय पुरस्कार दिया गया। जबकि हस्तशिल्प के क्षेत्र में अच्छा कार्य करने पर पिथौरागढ़ के श्री सुरेश राम को प्रथम, बागेश्वर के श्री मनीष कुमार को द्वितीय एवं अल्मोड़ा के श्री भुवनचन्द्र शाह को तृतीय पुरस्कार दिया गया।


इस वर्ष राजभवन में बसंत उत्सव का आयोजन दिनांक 24 व 25 फरवरी को किया जाएगा। #Uttarakhand के उच्च स्थानों पर पाये जाने वाले ‘जम्बू’(Allium auriulatum) पुष्प पर स्पेशल पोस्टल कवर, डाक विभाग के सौजन्य से जारी किया जाएगा। मंगलवार को राज्यपाल Dr. K.K. Paul की अध्यक्षता में आयोजित बैठक में बसंत उत्सव के आयोजन के संबंध में अनेक निर्णय लिए गए।
राज्यपाल ने कहा कि बसंत उत्सव के अवसर पर आयोजित चित्रकला प्रतियोगिता में अधिक से अधिक स्कूली बच्चों को प्रतिभाग करने के लिए प्रेरित किया जाए। पोस्टल कवर के लिए ऐसे पौधे को लिया जाए जो कि उत्तराखण्ड से जुड़ा हो। इस पर व्यापक विचार विमर्श के बाद स्पेशल पोस्टर के लिए ‘जम्बू’(Allium auriulatum) पर सहमति व्यक्त की गई। यह हिमालय में पाया जाने वाला पौधा है जो कि औषधीय गुणों से भरपूर है। उत्तराखण्ड के उच्च पर्वतीय भागों में स्थानीय लोगों द्वारा इसका उपयोग औषधि के साथ सब्जी व मसालों के रूप में भी किया जाता है।
राज्यपाल ने कहा कि बसंत उत्सव के आयोजन के पीछे उद्देश्य है कि उत्तराखण्ड में फ्लोरीकल्चर व ऐरोमेटिक पौधों की खेती को बढ़ावा दिया जाए। फूलों की खेती के माध्यम से किसानों की आय को दोगुनी करने के प्रधानमंत्री श्री Narendra Modi जी के लक्ष्य को पूरा किया जा सकता है। उद्यान विभाग केवल बसंत उत्सव तक सीमित न रहे बल्कि इन प्रयासों को लेकर बागवानों, काश्तकारों तक पहुंचे। राज्यपाल ने कहा कि इस आयोजन को ऐसा स्वरूप देना होगा कि दूर-दराज के पुष्पोत्पादन, जड़ी-बूटी, सगन्ध पौधों तथा अन्य जैविक उत्पादों की व्यावसायिक खेती से जुड़े काश्तकारों/उत्पादकों व ग्राहकों के लिए मंच के रूप में स्थापित हो सके। इन व्यवसायों से जुड़े काश्तकारों को मार्केट भी उपलब्ध करवाने के प्रयास करने होंगे।
जम्बू’(Allium auriulatum)

हिमोत्थान परियोजना
मुख्य सचिव श्री Utpal Kumar Singh ने सचिवालय में हिमोत्थान परियोजना के राज्य स्तरीय स्टीयरिंग कमेटी की बैठक की अध्यक्षता की। कहा कि हिमोत्थान सोसाइटी को मृदा परीक्षण कर किसानों को हेल्थ कार्ड भी देना चाहिए। किसानों को बताया जाय कि किस मिट्टी में कौन सी फसल का उत्पादन हो सकता है। आर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए भी कार्य करना चाहिए। इसके साथ ही कौशल विकास पर भी फोकस करने की जरूरत है। #Uttarakhand के उत्पादों का एक ही Brand Name होना चाहिए। इससे उत्तराखंड की पहचान बनेगी।
बैठक में बताया गया कि हिमोत्थान जल स्रोतों की मैपिंग और सूख रहे स्रोतों के पुनर्जीवीकरण के लिए 300 गांवों में कार्य कर रहा है। इसके साथ ही अपने फेडरेशन के माध्यम से जल की गुणवत्ता पर भी कार्य किया जा रहा है। बताया गया कि विभिन्न कृषि उत्पादों के बीज का उत्पादन भी किया जा रहा है। इस वर्ष 300 क्विंटल बीज का उत्पादन कर किसानों को वितरित किया गया है। इससे फसल का उत्पादन बढ़ा है। हिमोत्थान सोसाइटी ग्राम्य विकास, कृषि, वानिकी, पशुपालन, शिक्षा, डेरी आदि विभागों और विशेषज्ञ संस्थानों के साथ मिलकर कार्य कर रहा है। बताया गया कि 10 पर्वतीय जनपदों में 35 क्लस्टर के माध्यम से 650 गांवों में कार्य किया जा रहा है। इससे 63000 लोगों को लाभ मिल रहा है। 18000 घरों के लिए 10 फसलों के उत्पादन और बाजार लिंकेज का कार्य किया जा रहा है। वर्ष 2018 से 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए mission mode में कार्य करने की योजना बनाई गई है। पशुओं को चारा उपलब्ध कराने के लिए 1100 हैक्टर जमीन पर उत्पादन किया जा रहा है। इससे 500 गांवों के 25000 परिवारों को लाभ मिल रहा है। 100 गांवों में 12 क्लस्टर बनाकर 2000 पशुपालकों को बकरी पालन का लाभ दिया जा रहा है। इसके अलावा स्वरोजगार, शिक्षाए, स्वच्छता, शुद्ध पेयजल, कौशल विकास की दिशा में भी कार्य किया जा रहा

मुख्यमंत्री श्री Trivendra Singh Rawat ने मुख्यमंत्री आवास स्थित जनता मिलन हाॅल में M.S.M.E. मंत्रालय, भारत सरकार एवं उद्योग विभाग, उत्तराखण्ड द्वारा आयोजित M.S.M.E. पखवाड़ा का शुभारम्भ किया। इस अवसर पर मुख्यमंत्री ने Start Up Uttarakhand Portal का उद्घाटन, मेन्टरशिप कार्यक्रम का शुभारम्भ एवं क्राफ्ट्स आॅफ उत्तराखण्ड के डाॅक्यूमेंट का विमोचन किया। अपने सम्बोधन में मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र ने कहा कि लघु एवं सूक्ष्म उद्योगों के लिए #Uttarakhand में परिस्थितियों के हिसाब से अपार संभावनाएं हैं। प्रदेश में छोटे उद्योगों के माध्यम से कम पूंजी में अधिक लोगों को रोजगार के साधन उपलब्ध होंगे। उन्होंने कहा कि 16 जनवरी से 30 जनवरी 2018 तक चलने वाले इस पखवाड़े का उद्देश्य लघु एवं सूक्ष्म उद्योगों के लिए लोगों में जागरूकता लाना एवं प्रोत्साहित करना है। मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र ने कहा कि स्वयं सहायता समूहों में राज्य में महिलाएं अच्छा कार्य कर रही हैं। उन्होंने कहा कि सरकार महिला समूह को लघु एवं सूक्ष्म उद्यमों के लिए ऋण योजना पर योजना बना रही है। उन्होंने कहा कि उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए Single-Window System के तहत 10 करोड़ रूपये तक के निवेशों के प्रस्ताव की मंजूरी का अधिकार जिलाधिकारियों को दिया गया है।
मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र ने कहा कि स्थानीय उत्पादों, हस्तशिल्प, हथकरघा एवं जैविक उत्पादों की डिमांड तेजी से बढ़ रही है। यूरोपीय देशों में हाथ से बुनी हुई वस्तुओं की मांग तेजी से बढ़ रही है। प्रदेश में इन उत्पादों की अपार संभावनाएं हैं, इनको बढ़ावा देने के लिए लोगों में कौशल विकास की जरूरत है। उन्होंने कहा कि राज्य में प्रिटिंग के क्षेत्र में अच्छा स्कोप है, एक प्रिटिंग प्रेस से लगभग 20 स्थानीय लोगों को रोजगार मिलता है। उन्होंने कहा कि कट पेपर पर प्रिटिंग करने से उसकी लागत थोड़ा अधिक होता है। लेकिन इससे स्थानीय उद्योग स्थापित होगा और राज्य का पैसा राज्य में ही रहेगा। उन्होंने कहा कि नेशनल हैण्डलूम एक्सपो में पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष अच्छी सेल हुई। पिछले वर्ष 03 करोड़ 50 लाख की सेल हुई जो इस वर्ष बढ़कर 05 करोड़ 62 लाख हुई।
मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र ने इस अवसर पर राज्य में लघु उद्यम, हथकरघा एवं हस्तशिल्प के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले उद्यमियों को पुरस्कृत भी किया। लघु उद्यम में उत्कृष्ट कार्य करने के लिए नैनीताल के श्री अभिषेक मिश्रा को प्रथम, देहरादून के श्री ललित मोहन उनियाल को द्वितीय एवं बागेश्वर के श्री दलीप सिंह खेतवाल एवं पिथौरागढ़ के श्री सतीश चन्द्र को तृतीय पुरस्कार दिया गया। हथकरघा के क्षेत्र में श्रेष्ठ कार्य करने के लिए चमोली की श्रीमती नर्वदा देवी को प्रथम, उत्तरकाशी के श्री केदार चन्द्र को द्वितीय एवं पिथौरागढ़ की श्रीमती प्रेमा देवी को तृतीय पुरस्कार दिया गया। जबकि हस्तशिल्प के क्षेत्र में अच्छा कार्य करने पर पिथौरागढ़ के श्री सुरेश राम को प्रथम, बागेश्वर के श्री मनीष कुमार को द्वितीय एवं अल्मोड़ा के श्री भुवनचन्द्र शाह को तृतीय पुरस्कार दिया गया।

For the first time, India will allow nearly 15% of universities to offer online degrees allowing students and executives to learn anywhere, anytime.

For the first time, India will allow nearly 15% of universities to offer online degrees allowing students and executives to learn anywhere, anytime.
The courses, however, will be non-technical in nature, implying that they exclude degrees in engineering and medicine, human resource development minister Prakash Javadekar explained.
Although some believe the move may compromise quality, it will help India improve its low gross enrolment ratio (GER) in higher education and address the problem of access to colleges, faced in several parts of India.
“In a month or so, the rules will be finalized. The University Grants Commission is working on it,” said higher education secretary Kewal Kumar Sharma.
Universities accredited by the National Assessment and Accreditation Council (NAAC) and rated A+ will be allowed to offer such courses. Others that want to offer such courses will be allowed a window of two years to achieve the A+ level in NAAC accreditation.
“We are creating an enabling environment where not just students but working executives can study and earn a degree without travelling the distance,” Javadekar said, adding that adoption of technology in India is huge and this can be leveraged to boost higher education.
With mobile phone availability and usage on the rise, experts are hopeful that the existing ecosystem may be more welcoming to the idea of online learning.
The annual status of education report (ASER) published on Tuesday, which measures the learning ability of young people in the age group of 14-18 years, found that 73% used a mobile phone. “Maybe the policy makers can think about utilizing this bright spot,” said Madhav Chavan, co-founder of the non-government organization Pratham, which brings out the report.
However, the policy will face three key challenges. For one, it will be in direct conflict with distance education; second, the experience worldwide is that open online courses have not been a spectacular success; and three, the evaluation of students will be a difficult task. Besides, Indian higher education is not staffed sufficiently to manage the existing number of students.
This will be different from the regular correspondence course as it will allow students from outside the state—in case a state university is offering such courses—to sign up. At present, a state university cannot offer correspondence courses through distance mode to students residing outside the state boundary.
Ministry officials said since only a fraction of the universities with good ranks will be allowed to offer such courses, quality can be handled better.
Javadekar, however, said the government wanted to improve the GER significantly. Currently, some 25% of eligible students are pursuing higher education in India as against more than 70% in the US. Besides, the GER varies across several states. For example, while the proportion of students pursuing tertiary education is 14% in Bihar and 21% in Odisha, it is 47% in Tamil Nadu.
Asked why the country is pushing more people to pursue higher education instead of a skills-based education, the minister said government is working on the jobs front and better news will follow.
In 2016-17, India had more than 40,000 colleges, 11,669 stand-alone institutes and 864 universities catering to more than 35.7 million students.

Missing the grass for the trees in Western Ghats

Missing the grass for the trees in Western Ghats
Drastic decline in shola grasslands in Palani Hill range
Timber plantations, expanding agriculture and the spread of invasive species have eaten into as much as two-thirds of natural grasslands in the Palani Hill range of Western Ghats, shows a recently published study.
Researchers from Ashoka Trust for Research in Ecology and the Environment (ATREE) in Bengaluru collaborated with a team from IISER in Tirupati, Botanical Survey of India, Vattakanal Conservation Trust and Gandhigram Rural Institute used satellite imagery to tabulate changes in the hilly landscape over nearly 530 sq.km. of the range which is popular for the hillstation, Kodaikanal.
Loss of grasslands
If in 1973, shola grasslands spread across 373.78 sq.km. of the landscape, four decades later in 2014, it had shrunk to just 124.4 sq.km., marking a 66.7% decline. The reduction is seen even in native shola forests, whose area has declined by a third to 66.4 sq.km.
“These declines caught us by surprise, particularly considering that these dramatic changes have been occurring only around two decades ago,” said Milind Bunyan, Coordinator at the ATREE Academy for Conservation Science and Sustainability Studies, and the lead author of the paper that was published in PLOS One.
These drastic declines are particularly stark in shola grasslands (which are stunted forest growths of diverse grass species), and seem to be accelerating through the decades.
For the shola forests, however, the decline seems to have been arrested since 2003. Does this imply better conservation strategy for the woody forests, accompanied by a neglect of the grassland?
“For the department, much of their training is in managing forests, either for conservation or a source of income. However, shola grasslands which are critical habitats for many species, continue to be viewed as lower priority or grassy blanks,” said Mr. Bunyan.
In the place of these grasslands and forests, timber plantations have thrived. From barely 18 sq.km. in 1973, plantations have grown by a staggering 1093% to 217 sq.km.
Similarly, agriculture and fallow land have increased three times to 100 sq.km. in the past four decades.
Invasive species
The use of satellite imagery also revealed the nature of the growth of plantations. If till the 90s, it was a policy push for plantations — particularly after the settlement of Sri Lankan refugees — after that, it seems to be a natural march of invasive species such as prolific-seed-producer, Acacia.
“The grasslands are in trouble, much more than the forests. It is important to preserve whatever patches are remaining and push back invasive species. Tackling this would require ecological understanding, rather than a knee-jerk reaction of harvesting invasive trees which (counter-intuitively) ends up actually accelerating the spread of Acacia,” said V.V. Robin, Assistant Professor at IISER Tirupati.
As grasslands vanish or become more fragmented, local flora and fauna, particularly endemic species such as Nilgiri Pipit, may be under threat.
“Grasslands are now fragmented which means specialists such as Nilgiri Pipit are immovably displaced. It does seem like there has been local extinction of the bird, particularly when compared to the sightings during the British Raj,” said Mr. Robin, whose team is now following the population and spread of the bird in the Palani Hill Range.

पौड़ी गढ़वाल का सुप्रसिद्ध थलनदी गेंद मेला राजकीय मेला घोषित ,

पौड़ी गढ़वाल का सुप्रसिद्ध थलनदी गेंद मेला राजकीय मेला घोषित ,
उत्तराखंड राज्य के जनपद पौड़ी गढ़वाल के यमकेश्वर व दुगड्डा व द्वारीखाल ब्लाक के कुछ स्थानों में मकरसंक्रांति को एक अनोखा खेल खेला जाता ही| इस खेल का नाम ही गेंद मेला|यह एक सामूहिक शक्ति परीक्षण का मेला है|इस मेले में न तो खिलाडियों की संख्या नियत होती ही न इसमें कोई विशेष नियम होते हैं. बस दो दल बना लीजिये और चमड़ी से मढ़ी एक गेंद को छीन कर कर अपनी सीमा में ले जाइये.परन्तु जितना यह कहने सुनने में आसन है उतना है नही, क्योंकि दूसरे दल के खिलाड़ी आपको आसानी से गेंद नहीं ले जाने देंगे|बस इस बस इस गुत्थमगुत्था में गेंद वाला नीचे गिर जाता है जिसे गेन्द का पड़ना कहते है|गेन्द वाले से गेंद छीनने के प्रयास में उसके ऊपर न जाने कितने लोग चढ़ जाती हें| कुछ तो बेहोश तक हो जाते हैं| ऐसी लोगो को बाहर निकल दिया जाता है| होश आने पर वे फिर खेलने जा सकते हैं|जो दल गेन्द को अपनी सीमा में ले जाते हैं वहीं टीम विजेता मानी जाती है | इस प्रकार शक्तिपरीक्षण का यह अनोखा खेल 3 से 4 घन्टे में समाप्त हो जाता है
इस खेल का उद्भव यमकेश्वर ब्लाक व् दुगड्डा ब्लाक की सीमा थलनदी नमक स्थान पर हुआ जहाँ मुगलकाल में राजस्थान के उदयपुर अजमेर से लोग आकर बसे हें इसलिए यहाँ की पट्टियों(राजस्व क्षेत्र )के नाम भी उदेपुर वल्ला,उदेपुर मल्ला,उदेपुर तल्ला एवम उदेपुर पल्ला (यमकेश्वर ब्लाक) व अजमीर पट्टिया(दुगड्डा ब्लाक)हैं | थलनदी में यह खेल आज भी इन्हीं लोगो के बीच खेला जाता है|यमकेश्वर में यह किमसार,यमकेश्वर,त्योडों,ताल व कुनाव नामक स्थान पर खेला जाता है तथा द्वारीखाल में यह डाडामंडी व कटघर में खेला जाता है, कटघर में यह उदेपुर व ढागू के लोगो के बीच खेला जाता है| दुगड्डा में यह मवाकोट (कोटद्वार के निकट ) में खेला जाता है

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India’s learning deficit is worsening: ASER study

India’s learning deficit is worsening: ASER study
In 14-18 years age group, only 43% able to do a simple division correctly, while 47% of 14-year-olds could not read a simple sentence in English, says the ASER study
The legacy of learning deficit visible so far in elementary school children is now being reflected among young adults too, the Annual Status of Education Report (ASER) study revealed.
Since, around 10% of Indian population is in this age group, their productivity has a direct bearing on India’s competitiveness as an economy. At the same time, it also poses a political challenge to incumbent governments as they cannot be easily absorbed in the workforce—adding to the growing number of unemployed youth.
Nearly one out of two (47%) 14-year olds could not read a simple sentence of English. Graphic: Paras Jain/Mint
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In the 14-18 years age group, over one in two students could not do a simple division. “Only 43% are able to do such problems correctly,” the ASER 2017 conducted by education non-profit Pratham revealed.
Similarly, nearly one out of two (47%) 14-year olds could not read a simple sentence of English; the proportion was two out of five for 18-year olds. It is not just English, 25% of the youth could not read basic text fluently even when it was in their own languages.
“Learning deficits seen in elementary school in previous years seem to carry forward as young people go from being adolescents to young adults,” the report underlined. “Interestingly, although reading ability in regional languages and in English seems to improve slightly with age (more 18-year olds can read than 14-year olds), the same does not seem to apply to mathematics. The proportion of youth who have not acquired basic math skills by age 14 is the same as that of (an) 18-year (old),” it added.
The findings are disappointing and pointing to a larger problem, said Arvind Subramanian, chief economic adviser to the Union finance ministry, while unveiling the report. According to him political parties needed to make education an electoral issue to improve learning outcomes.
This year ASER surveyed students in the age group of 14-18 years, unlike the last 12 years when it focused on students in elementary schools. The survey, though, has a smaller sample size this year.
“When your secondary level students are not learning like the elementary students, the problem becomes bigger. It is because of two reasons—one, this 14-18 years age group are ready to enter the workforce and thus has a direct bearing on the economy; second, the families depend more on this young cohort for doing free work,” said Rukmini Banerji, chief executive of Pratham Education Foundation.
This time ASER teams went beyond basics and surveyed students on activity in schools, ability to solve problems, exposure, awareness and aspirations across 28 districts in 24 states to gauge the “ability (of adolescents aged 14-18 years) to lead productive lives as adults”.
And the findings are equally disappointing. For example, 24% in the 14-18 age group could not count currency correctly, 44% could not add weights correctly in kilograms as they were asked to add weights, 14% could not recognize a map of India and some 36% couldn’t name the capital of India. Similarly, while 79% could name the state they lived in, 58% could not locate it on a map.
The ASER report also shows that enrolment gap between males and females in the formal education system increases with age. There is hardly any difference between boys and girls enrolment at age 14. But by the time they turn 18, the drop out rate is 32% for females and 28% for males.
“The problem is multi-faceted. It’s not confined to just reading or mathematics and hence needs urgent attention,” said Banerji.
The ASER findings serve as a warning ahead of India’s participation in the rigorous Program for International Student Assessment (PISA) to be conducted by OECD in 2021. In 2009, the last time it participated, India was ranked second last among 74 countries and regions, inviting sharp criticism from academics and experts on how Indian education is impacting the country’s competitiveness to become a global powerhouse

Ills of too much transparency

Ills of too much transparency
In as much as we gain as we improve the transparency of decisions in organizations and society, we should be cognizant of the losses the pursuit for transparency entails.
In the last few days, circumstances forced the Supreme Court and the Catholic Church in Kerala, two organizations that normally operate in complete secrecy, to open up about a few of their decisions. Since what came out in the open were issues of impropriety, the immediate demand from all quarters was for even more openness about the functioning of both these organizations.
The Catholic Church is a 2,000 year old organization that has made secrecy an art form. The case isn’t too different for the Supreme Court in India. The key decisions were taken only by a select few insiders and the man in the street was never privy to the machinations. The common man had no option but to obey their decisions or face the consequences, in complete silence.
Like sunlight, the ideal disinfectant, transparency has been considered the panacea against corruption in organizations and society. Transparency allows access to all decision-making processes. Decisionmakers know that what they say or do will be linked to them personally. They all know that their performance will be evaluated by others according to some normative standards. The decisionmaker is also expected to provide clear reasons for taking any decisions. Thus, transparency is expected to bring in the twin benefits of clarity about a decision and holding the decisionmaker accountable for it.
It seems that more transparency can only do more good. Should organizations then open up all their decision-making processes?
As the chorus for more transparency was heard around the world, behavioural scientists did their bit to study the impact of more transparency. According to Ethan Bernstein of Harvard University, the issue of transparency can be seen from the point of view of the observer or from the point of view of the observed. Almost all the discussion on transparency has looked at the issue from the point of view of the observer. From that angle one can only visualize good things that will accrue due to new levels of openness.
But when we look at the issue of transparency from the point of view of the observed, the whole issue takes on a complexity of a different order. According to sociologist Erving Goffman, being observed creates a feeling of being “on stage” among those who being are observed. As soon as they know of it, the observed will always change their behaviour to control others’ impressions and avoid embarrassments.
Transparency puts those observing the decisions in an evaluative mode, looking at everything with a critical eye. Right from prime time television debates to discussions on social media, we tend to focus on what has possibly gone wrong. We rarely use evaluations to look for opportunities to praise the decisionmaker. So the consequent tendency of the observed is a defensive one—to not be seen as doing anything wrong.
Innovation and creativity do not stem from a linear, as per existing rules, decisionmaking process. All innovations have come from experimenting with and even going against the status quo. The evaluative mood that transparency engenders obliterates any attempts at experimentation.
Innovation results from non-conscious processes in the brain. The consciousness of a person cannot explain the rationale for decisions that led to an innovative outcome. It is worse if the attempt to come up with an innovative solution was a failure. So the decisionmaker can neither explain why he took those decisions nor has anything to show in terms of results for walking a path different from what has been laid out according to existing rules. They know that those who cannot provide satisfactory justifications for their actions will face negative consequences.
Innovation cannot happen if there is no scope for experimentation or if failures are not tolerated, if not encouraged. The critical, evaluative mood that transparency creates will nip innovation in the bud.
Studies have shown that workers are at their most productive and creative when they are not observed, suggesting that performance improvements can sometimes be achieved by creating “zones of privacy”.
Calling for complete transparency in all decisionmaking also makes a crucial assumption about the powers of the brains of those observing the decisions. It assumes that the brains of those observing the decisions have the expertise to process all the information regarding that particular decision and arrive at the right conclusions. The truth is that most of us do not have expertise even in one field but have a tendency to be evaluative about almost all decisions, more so those decisions that affect us. Transparency tends to give a wrong feeling that having a point-of-view and having an expert point-of-view are the same.
Transparency is seen by many to be a panacea for many ills in organizations and society. But transparency is one issue that reminds us of the complex nature of human behaviour. In as much as we gain as we improve the transparency of decisions in organizations and society, we should be cognizant of the losses the pursuit for transparency entails.
One should be careful of what we wish for. Too much of a good thing can actually be harmful. It is one thing to demand more and more transparency. But it is quite a different matter to decide how much transparency, for whom and in what context is most beneficial. Yes, sunlight is a good disinfectant, but sunstroke is an instant killer too.

Building on India’s family planning success

Building on India’s family planning success
Empowering women to make reproductive choices is the best way to address fertility, and its associated health challenges in India
Social reformer Raghunath Dhondo Karve was well ahead of his time when he pioneered family planning in Mumbai in the 1920s. Independent India’s first government caught up in 1952 when it started the world’s first family planning programme. There have been missteps since, such as Sanjay Gandhi’s forced sterilization drive. On the whole, these programmes have done well in tackling India’s fertility challenge. The recently released report on the fourth round of the National Family Health Survey (NFHS-4), carried out in 2015-16, shows where it has succeeded—and where shortcomings remain.
The total fertility rate has declined to 2.2, marginally above the replacement rate of 2.1. This is substantial progress from 2005-2006 when NFHS-3 pegged the rate at 2.7. There are a number of takeaways from slicing the numbers in different ways. The first is the geographic variance. The fertility rate in 23 states and Union territories—including all the southern states—is below the replacement rate. It is substantially higher in a number of states in central, east and north-east India. Bihar, for instance, has the highest rate at 3.41, followed by Meghalaya at 3.04 and Uttar Pradesh and Nagaland at 2.74. Plainly, the nature and scope of the fertility-related public health challenge facing state governments varies widely. So must the response. The most effective way of enabling this is a greater role for local bodies in both urban and rural areas—an item on the incomplete devolution agenda.
Second, breaking up the fertility rate by the background characteristics of female respondents produces the central takeaway. Education is a clear differentiator. Women with 12 years or more of schooling have a fertility rate of 1.7, while women with no schooling have an average rate of 3.1. Birth order backs this up. Thirty-one per cent of births to women with no schooling were of birth order four or higher. The corresponding rate for women with 12 years or more of schooling was 2%.
Education levels are strongly correlated with another important aspect of the fertility rate. Higher levels of schooling mean lower levels of teenage pregnancy. In the 15-19 cohort, as many as one-fifth of the women with no schooling have begun childbearing, while only one in 25 women in the same cohort who have had 12 years or more of schooling have done so. Teenage childbearing, in turn, results in greater health risks. The median birth interval in the 15-19 group is 22.6 months. Birth intervals smaller than 24 months “are associated with increased health risks for both mothers and newborns”.
The implication is clear. Lack of education robs women of reproductive control, feeding into India’s maternal and child health problem. Combined with younger pregnancies and higher childbearing rates, it also constrains women’s economic choices. This, in turn, reinforces a lack of reproductive control—44% of women who are unemployed use modern contraceptives while 60% of women who are employed for cash do so—perpetuating a vicious cycle.
The skewed pattern of contraceptive usage is the third takeaway. Knowledge of contraceptive methods is now almost universal in India; the government has done well here. Despite this, men have not taken up the responsibility of managing fertility. The most popular contraceptive method by far, at 36%, is female sterilization. Male sterilization—a less invasive and easier method with a much lower chance of medical complications—accounts for a mere 0.3%. Male condom usage is low as well, at 5.6%. The public healthcare system, which accounts for almost 70% of modern contraceptive usage, doesn’t do enough to address this problem caused by societal attitudes. Only 54% of women were informed of other available contraceptive methods while 47% of women were informed of the possible side effects of their chosen method.
The initial decades of India’s family planning efforts were shaped by foreign funds and agencies that were driven by Malthusian economics. That particular logic has long since been debunked. Now, the Centre and state governments must catch up. The National Population Policy (NPP) of 2000 explicitly rejected the numbers game—the targeted approach that had dominated fertility management until then. But the hangover remains with the National Health Policy 2017 again setting a fertility rate target. And it took the Supreme Court, in its 2016 verdict in Devika Biswas vs Union of India & Others, to call for an end to sterilization camps. These corral poorly informed women, largely in rural areas, in order to hit bureaucratic targets, often violating reproductive rights in the process.
Almost a century ago, Karve took the then radical view that women could best confront the fertility challenge via emancipation and gender equality. That continues to hold true today. Successive governments have done well over the decades; NFHS-4 shows improvement in almost all metrics from the 2005-06 NFHS-3. Now, they must focus on enabling educational and economic opportunities for women.
Has India made sufficient progress in addressing the fertility health challenge?

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