जैविक ईधन की ओर अग्रसर दुनिया
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जैविक र्इंधन कार्बन डाइआॅक्साइड का अवशोषण कर हमारे परिवेश को स्वच्छ रखता है। अगर इसका इस्तेमाल होता है तो इससे र्इंधन की कीमतें घटती हैं और पर्यावरण को भी कम नुकसान होता है। यही नहीं, अगर भारत में कृषि क्षेत्र को जैविक र्इंधन के उत्पादन से जोड़ दिया जाए तो किसानों का भला होगा। लिहाजा, सरकार को इसे प्रचलन में लाने के लिए बढ़ावा देना चाहिए।
यह स्वागतयोग्य है कि ‘कोप 23’ नाम से हुए संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण परिवर्तन सम्मेलन में ग्लोबल वार्मिंग और वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए जैविक र्इंधन के इस्तेमाल के लिए भारत समेत उन्नीस देशों ने अपनी सहमति की मुहर लगा दी है। सुखद यह भी है कि इसी सम्मेलन में समृद्ध और विकसित देशों ने एकजुटता दिखाते हुए भविष्य में कोयले से बिजली उत्पादन बंद करने की भी शपथ ली। इससे संबंधित घोषणा पत्र में कहा गया है कि पृथ्वी पर ग्लोबल वार्मिंग दो डिग्री सेल्शियस से कम पर ही सीमित करने के लिए विकसित देशों को हर हाल में 2030 तक कोयले से मुक्त होना होगा। बाकी दुनिया में कोयले का इस्तेमाल बंद करने को लेकर 2050 तक की समय सीमा निर्धारित की गई है।
गौरतलब है कि जैविक र्इंधन पर सहमति जताने वाले इन उन्नीस देशों में दुनिया की आधी आबादी रहती है और अर्थव्यवस्था में इन देशों की वैश्विक हिस्सेदारी सैंतीस प्रतिशत है। अगर ये सभी देश जैविक र्इंधन के इस्तेमाल को बढ़ावा देते हैं तो निस्संदेह ग्लोबल वार्मिंग और वायु प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सकेगा। जीवाश्म र्इंधन में सबसे अधिक गंदे और प्रदूषित कोयले से अब भी विश्व की तकरीबन चालीस प्रतिशत बिजली का उत्पादन होता है। समस्या अब तक यही रही है कि जो देश पूरी तरह से कोयले पर अपनी निर्भरता खत्म भी कर सकते थे, वे भी ‘नो कोल’ कहने से बच रहे थे। लेकिन अच्छी बात यह है कि विकसित देशों का हृदय परिवर्तन हुआ है। कनाडा और ब्रिटेन समेत कई विकसित देशों ने तय किया है कि वे कार्बन डाइआॅक्साइड के उत्पादन को वातावरण में कम करने के लिए कोयले की परियोजनाओं से दूर रहेंगे।
यह स्वागतयोग्य है कि ‘कोप 23’ नाम से हुए संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण परिवर्तन सम्मेलन में ग्लोबल वार्मिंग और वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए जैविक र्इंधन के इस्तेमाल के लिए भारत समेत उन्नीस देशों ने अपनी सहमति की मुहर लगा दी है। सुखद यह भी है कि इसी सम्मेलन में समृद्ध और विकसित देशों ने एकजुटता दिखाते हुए भविष्य में कोयले से बिजली उत्पादन बंद करने की भी शपथ ली। इससे संबंधित घोषणा पत्र में कहा गया है कि पृथ्वी पर ग्लोबल वार्मिंग दो डिग्री सेल्शियस से कम पर ही सीमित करने के लिए विकसित देशों को हर हाल में 2030 तक कोयले से मुक्त होना होगा। बाकी दुनिया में कोयले का इस्तेमाल बंद करने को लेकर 2050 तक की समय सीमा निर्धारित की गई है।
गौरतलब है कि जैविक र्इंधन पर सहमति जताने वाले इन उन्नीस देशों में दुनिया की आधी आबादी रहती है और अर्थव्यवस्था में इन देशों की वैश्विक हिस्सेदारी सैंतीस प्रतिशत है। अगर ये सभी देश जैविक र्इंधन के इस्तेमाल को बढ़ावा देते हैं तो निस्संदेह ग्लोबल वार्मिंग और वायु प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सकेगा। जीवाश्म र्इंधन में सबसे अधिक गंदे और प्रदूषित कोयले से अब भी विश्व की तकरीबन चालीस प्रतिशत बिजली का उत्पादन होता है। समस्या अब तक यही रही है कि जो देश पूरी तरह से कोयले पर अपनी निर्भरता खत्म भी कर सकते थे, वे भी ‘नो कोल’ कहने से बच रहे थे। लेकिन अच्छी बात यह है कि विकसित देशों का हृदय परिवर्तन हुआ है। कनाडा और ब्रिटेन समेत कई विकसित देशों ने तय किया है कि वे कार्बन डाइआॅक्साइड के उत्पादन को वातावरण में कम करने के लिए कोयले की परियोजनाओं से दूर रहेंगे।
यों हर साल 10 अगस्त, 2016 को गैर जीवाश्म र्इंधन के प्रति जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से जैव र्इंधन दिवस मनाया जाता है। दरअसल, डीजल इंजन के आविष्कारक सर रुदाल्फ डीजल ने 10 अगस्त, 1893 को ही पहली बार मूंगफली के तेल से यांत्रिक र्इंजन को सफलतापूर्वक चलाया था। उन्होंने शोध के प्रयोग के बाद भविष्यवाणी की थी कि अगली सदी में विभिन्न यांत्रिक इंजन जैविक र्इंधन से चलेंगे और इसी में दुनिया का भला भी है। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र विश्व मौसम संबंधी संगठन के सालाना ग्रीनहाउस गैस बुलेटिन में कार्बन उत्सर्जन के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। बीते साल धरती के वायुमंडल में जिस रफ्तार से कार्बन डाइआॅक्साइड जमा हुई, उतनी पिछले लाखों वर्षों के दौरान नहीं देखी गई।
विशेषज्ञों का मानना है कि कार्बन उत्सर्जन की यह दर समुद्र तल में बीस मीटर और तापमान में तीन डिग्री इजाफा करने में सक्षम है। अगर ऐसा हुआ तो धरती का कोई कोना और कोई जीव सुरक्षित नहीं रह सकेगा। बीते कुछ दशकों में जिस गति से वातावरण में कार्बन डाइआॅक्साइड की मात्रा बढ़ी है, वह पच्चीस लाख वर्ष पहले दुनिया से आखिरी हिम-युग खत्म होने के समय हुई वृद्धि से सौ गुना अधिक है। इससे पहले तीस से पचास लाख वर्ष पूर्व मध्य प्लीयोसीन युग में वातावरण में कार्बन डाइआॅक्साइड चार सौ पीपीएम के स्तर पर पहुंचा था। तब सतह का वैश्विक औसत तापमान आज से 2-3 डिग्री सेल्शियस अधिक था। इसके चलते ग्रीनलैंड और पश्चिमी अंटाकर्टिक की बर्फ की चादरें पिघल गर्इं। इससे समुद्र का स्तर आज की तुलना में 10-20 मीटर ऊंचा हो गया था। 2016 की ही बात करें तो कार्बन डाइआॅक्साइड की वृद्धि दर पिछले दशक की कार्बन वृद्धि दर से 50 प्रतिशत तेज रही। इसके चलते औद्योगिक काल से पहले के कार्बन स्तर से 45 प्रतिशत ज्यादा कार्बन डाइआॅक्साइड इस साल उत्सर्जित हुई। 400 पीपीएम का स्तर हालिया हिम युगों और गर्म काल के 180-280 पीपीएम से कहीं अधिक है। उसका मूल कारण यह है कि 2016 में कोयला, तेल, सीमेंट का इस्तेमाल और जंगलों की कटाई अपने रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई। अल-नीनो प्रभाव ने भी कार्बन डाइआॅक्साइड के स्तर में इजाफा करने में बड़ी भूमिका निभाई है।
अफसोस की बात है कि समय-समय पर कार्बन उत्सर्जन की दर में कमी लाने का संकल्प जाहिर किया गया, लेकिन उसे मूर्त रूप नहीं दिया गया। गौर करें तो आज की तारीख में भारत और चीन जहरीली गैस सल्फर डाइआॅक्साइड के शीर्ष उत्सर्जक देशों में शुमार हैं। सल्फर डाइआॅक्साइड मुख्य रूप से बिजली उत्पादन के लिए कोयले को जलाने पर उत्पन्न होती है। इससे एसिड रेन और धुंध समेत स्वास्थ्य संबंधी कई समस्याएं जन्म लेती हैं। भारत में पिछले एक दशक में सल्फर डाइआॅक्साइड के उत्सर्जन में पचास प्रतिशत का इजाफा हुआ है। यहां समझना होगा कि चीन में कोयले का इस्तेमाल 50 प्रतिशत और बिजली उत्पादन 100 प्रतिशत बढ़ा है। इसके बावजूद चीन ने विभिन्न तरीकों से उत्सर्जन को 75 प्रतिशत तक घटाया है।
चीन ने वर्ष 2000 के बाद से ही उत्सर्जन कम करने का लक्ष्य तय करने और उत्सर्जन की सीमा घटाने के लिए कारगर नीतियों को अमल में लाना शुरू किया और वह इसमें काफी हद तक सफल रहा। भारत को भी इस दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे। इसके लिए सबसे बेहतरीन उपाय जैविक र्इंधन का इस्तेमाल है। यह ऊर्जा का महत्त्वपूर्ण स्रोत है और इसका इस्तेमाल भी सरल है। इसका देश के कुल र्इंधन उपयोग में एक-तिहाई का योगदान है और ग्रामीण परिवारों में इसकी खपत तकरीबन 90 प्रतिशत है। यह प्राकृतिक तौर से नष्ट होने वाला, सल्फर और गंध से मुक्त है। जैविक र्इंधन जीवाश्म र्इंधन की तुलना में एक स्वच्छ र्इंधन है। जीवाश्म र्इंधन उसे कहते हैं जो मृत पेड़-पौधों और जानवरों के अवशेषों से तैयार होता है। जैव र्इंधन पृथ्वी पर विद्यमान वनस्पति को रासायनिक प्रक्रिया से गुजार कर तैयार किया जाता है। उदाहरण के लिए, गन्ने के रस को अल्कोहल में बदल कर उसे पेट्रोल में मिलाया जाता है। या मक्का के दानों में खमीर उठा कर उससे र्इंधन तैयार किया जाता है। इसके अलावा जैट्रोपा, सोयाबीन और चुकंदर आदि से भी र्इंधन तैयार किया जाता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि कार्बन उत्सर्जन की यह दर समुद्र तल में बीस मीटर और तापमान में तीन डिग्री इजाफा करने में सक्षम है। अगर ऐसा हुआ तो धरती का कोई कोना और कोई जीव सुरक्षित नहीं रह सकेगा। बीते कुछ दशकों में जिस गति से वातावरण में कार्बन डाइआॅक्साइड की मात्रा बढ़ी है, वह पच्चीस लाख वर्ष पहले दुनिया से आखिरी हिम-युग खत्म होने के समय हुई वृद्धि से सौ गुना अधिक है। इससे पहले तीस से पचास लाख वर्ष पूर्व मध्य प्लीयोसीन युग में वातावरण में कार्बन डाइआॅक्साइड चार सौ पीपीएम के स्तर पर पहुंचा था। तब सतह का वैश्विक औसत तापमान आज से 2-3 डिग्री सेल्शियस अधिक था। इसके चलते ग्रीनलैंड और पश्चिमी अंटाकर्टिक की बर्फ की चादरें पिघल गर्इं। इससे समुद्र का स्तर आज की तुलना में 10-20 मीटर ऊंचा हो गया था। 2016 की ही बात करें तो कार्बन डाइआॅक्साइड की वृद्धि दर पिछले दशक की कार्बन वृद्धि दर से 50 प्रतिशत तेज रही। इसके चलते औद्योगिक काल से पहले के कार्बन स्तर से 45 प्रतिशत ज्यादा कार्बन डाइआॅक्साइड इस साल उत्सर्जित हुई। 400 पीपीएम का स्तर हालिया हिम युगों और गर्म काल के 180-280 पीपीएम से कहीं अधिक है। उसका मूल कारण यह है कि 2016 में कोयला, तेल, सीमेंट का इस्तेमाल और जंगलों की कटाई अपने रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई। अल-नीनो प्रभाव ने भी कार्बन डाइआॅक्साइड के स्तर में इजाफा करने में बड़ी भूमिका निभाई है।
अफसोस की बात है कि समय-समय पर कार्बन उत्सर्जन की दर में कमी लाने का संकल्प जाहिर किया गया, लेकिन उसे मूर्त रूप नहीं दिया गया। गौर करें तो आज की तारीख में भारत और चीन जहरीली गैस सल्फर डाइआॅक्साइड के शीर्ष उत्सर्जक देशों में शुमार हैं। सल्फर डाइआॅक्साइड मुख्य रूप से बिजली उत्पादन के लिए कोयले को जलाने पर उत्पन्न होती है। इससे एसिड रेन और धुंध समेत स्वास्थ्य संबंधी कई समस्याएं जन्म लेती हैं। भारत में पिछले एक दशक में सल्फर डाइआॅक्साइड के उत्सर्जन में पचास प्रतिशत का इजाफा हुआ है। यहां समझना होगा कि चीन में कोयले का इस्तेमाल 50 प्रतिशत और बिजली उत्पादन 100 प्रतिशत बढ़ा है। इसके बावजूद चीन ने विभिन्न तरीकों से उत्सर्जन को 75 प्रतिशत तक घटाया है।
चीन ने वर्ष 2000 के बाद से ही उत्सर्जन कम करने का लक्ष्य तय करने और उत्सर्जन की सीमा घटाने के लिए कारगर नीतियों को अमल में लाना शुरू किया और वह इसमें काफी हद तक सफल रहा। भारत को भी इस दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे। इसके लिए सबसे बेहतरीन उपाय जैविक र्इंधन का इस्तेमाल है। यह ऊर्जा का महत्त्वपूर्ण स्रोत है और इसका इस्तेमाल भी सरल है। इसका देश के कुल र्इंधन उपयोग में एक-तिहाई का योगदान है और ग्रामीण परिवारों में इसकी खपत तकरीबन 90 प्रतिशत है। यह प्राकृतिक तौर से नष्ट होने वाला, सल्फर और गंध से मुक्त है। जैविक र्इंधन जीवाश्म र्इंधन की तुलना में एक स्वच्छ र्इंधन है। जीवाश्म र्इंधन उसे कहते हैं जो मृत पेड़-पौधों और जानवरों के अवशेषों से तैयार होता है। जैव र्इंधन पृथ्वी पर विद्यमान वनस्पति को रासायनिक प्रक्रिया से गुजार कर तैयार किया जाता है। उदाहरण के लिए, गन्ने के रस को अल्कोहल में बदल कर उसे पेट्रोल में मिलाया जाता है। या मक्का के दानों में खमीर उठा कर उससे र्इंधन तैयार किया जाता है। इसके अलावा जैट्रोपा, सोयाबीन और चुकंदर आदि से भी र्इंधन तैयार किया जाता है।
जैविक र्इंधन कार्बन डाइआॅक्साइड का अवशोषण कर हमारे परिवेश को स्वच्छ रखता है। अगर इसका इस्तेमाल होता है तो इससे र्इंधन की कीमतें घटती हैं और पर्यावरण को भी कम नुकसान होता है। यही नहीं, अगर भारत में कृषि क्षेत्र को जैविक र्इंधन के उत्पादन से जोड़ दिया जाए तो किसानों का भला होगा। इसलिए सरकार को इसे प्रचलन में लाने के लिए बढ़ावा देना चाहिए। गौरतलब है कि ब्राजील में जैविक र्इंधन तैयार करने के लिए पेट्रोलियम उत्पादों में बाईस प्रतिशत तक इथेनॉल मिलाया जाता है। अगर भारत भी यह रास्ता अख्तियार करे तो इससे कच्चे तेल के आयात में बाईस प्रतिशत तक की कमी आएगी और इससे विदेशी मुद्रा की बचत होगी।
यों केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा राष्ट्रीय जैव र्इंधन नीति को 11 सितंबर, 2008 को ही मंजूरी दी जा चुकी है। इस नीति में परिकल्पना की गई है कि जैव र्इंधन यानी बायोडीजल और जैव इथेनॉल को घोषित उत्पादों के तहत रखा जाए, ताकि जैव र्इंधन के अप्रतिबंधित परिवहन को राज्य के भीतर और बाहर सुनिश्चित किया जा सके; जैव-डीजल पर कोई कर नहीं लगना चाहिए। यह भी सुनिश्चित हुआ है कि तेल विपणन कंपनियों द्वारा जैव इथेनॉल की खरीद के लिए न्यूनतम खरीद मूल्य उत्पादन की वास्तविक लागत और जैव-इथेनॉल के आयातित मूल्य पर आधारित होगा। बायो-डीजल के मामले में न्यूनतम खरीद मूल्य वर्तमान खुदरा डीजल मूल्य से संबंधित होगा। लेकिन महत्त्वपूर्ण बात है कि यह सारी कवायद कागजी है। जब तक इसे मूर्त रूप नहीं दिया जाएगा, तब तक जैविक र्इंधन के लक्ष्य को साधना कठिन होगा और ग्लोबल वार्मिंग या फिर वायु प्रदूषण से निपटने की चुनौती बरकरार रहेगी।
यों केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा राष्ट्रीय जैव र्इंधन नीति को 11 सितंबर, 2008 को ही मंजूरी दी जा चुकी है। इस नीति में परिकल्पना की गई है कि जैव र्इंधन यानी बायोडीजल और जैव इथेनॉल को घोषित उत्पादों के तहत रखा जाए, ताकि जैव र्इंधन के अप्रतिबंधित परिवहन को राज्य के भीतर और बाहर सुनिश्चित किया जा सके; जैव-डीजल पर कोई कर नहीं लगना चाहिए। यह भी सुनिश्चित हुआ है कि तेल विपणन कंपनियों द्वारा जैव इथेनॉल की खरीद के लिए न्यूनतम खरीद मूल्य उत्पादन की वास्तविक लागत और जैव-इथेनॉल के आयातित मूल्य पर आधारित होगा। बायो-डीजल के मामले में न्यूनतम खरीद मूल्य वर्तमान खुदरा डीजल मूल्य से संबंधित होगा। लेकिन महत्त्वपूर्ण बात है कि यह सारी कवायद कागजी है। जब तक इसे मूर्त रूप नहीं दिया जाएगा, तब तक जैविक र्इंधन के लक्ष्य को साधना कठिन होगा और ग्लोबल वार्मिंग या फिर वायु प्रदूषण से निपटने की चुनौती बरकरार रहेगी।
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