20 December 2017

राजनीतिः खाद्य सुरक्षा पर रस्साकशी

राजनीतिः खाद्य सुरक्षा पर रस्साकशी

विकसित देश अपनी कृषि सबसिडी को बहुत ऊंचे स्तर पर बनाए रखते हुए भी विकासशील देशों के लिए सबसिडी पर कृषि के सकल घरेलू उत्पाद के दस फीसद की अधिकतम सीमा थोपने में कामयाब रहे हैं। उनका शुरू से दबाव रहा है कि कोई भी विकासशील देश अपनी कृषि उपज के दस फीसद से ज्यादा रकम सबसिडी के रूप में न दे।अर्जेंटीना के ब्यूनस आयर्स में आयोजित विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की ग्यारहवीं मंत्रिस्तरीय बैठक बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गई। इसमें हिस्सा ले रहे देश खाद्य व कृषि सबसिडी को लेकर आम राय नहीं बना सके। क्योंकि अमेरिका व अन्य विकसित देश बहुपक्षीय व्यापार संस्था के सदस्यों द्वारा सार्वजनिक खाद्य भंडारण के मसले का स्थायी समाधान खोजने की अपनी प्रतिबद्धता से मुकर गए। भारत और उसके साथ खड़े डब्ल्यूटीओ के बहुसंख्यक सदस्य-देश चाहते हैं कि सार्वजनिक भंडारण, न्यूनतम समर्थन मूल्य और खाद्य सुरक्षा पर उन प्रतिबद्धताओं का पालन किया जाए, जो 2013 में बाली में और 2015 में नैरोबी के मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में व्यक्त की गई थीं। बाली सम्मेलन में शामिल किए गए ‘शांति अनुच्छेद’ के तहत अगर सरकार सार्वजनिक खरीद के दस प्रतिशत के स्थापित मानक से ज्यादा जमा करती है तो भी उस पर कार्रवाई नहीं की जाएगी। दूसरी तरफ अमेरिका को इस पर कड़ी आपत्ति है। खाद्य सुरक्षा का यह विवाद उस समय और भी बड़ा हो जाता है जब अफ्रीका के कई देश मुख्य अनाजों के साथ खाद्य के अन्य पदार्थों की खरीद की छूट मांग रहे हैं और अमेरिका जैसे देश उसे सीमित करना चाह रहे हैं। इसलिए सवाल यह भी है कि सार्वजनिक खरीद सिर्फ गेहूं और चावल की होनी चाहिए या दूसरे खाद्य पदार्थों की भी।
मौजूदा विवाद में विकासशील देशों की मांग है कि धनी देश खेती पर अपनी सबसिडी घटाएं, जबकि अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान, कनाडा और आस्ट्रेलिया चाहते हैं कि ई-कॉमर्स और निवेश-सुविधा को बढ़ावा दिया जाए। विकासशील देश इसे अमीर देशों की तरफ से उठाया गया नया मुद्दा छोटे विक्रेताओं के विरुद्ध एमेजॉन जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में उठाया गया कदम मानते हैं। बता दें कि भारत 2013 के खाद्य सुरक्षा अधिनियम से भी बंधा हुआ है और वह खाद्य भंडारण में होने वाले भारी खर्च के बावजूद इसकी राजनीतिक अहमियत को समझता है। यह प्रणाली सूखा, अकाल और दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में नागरिकों का जीवन तो बचाती ही है, विश्व व्यापार को स्थिरता प्रदान करती है। जाहिर है, कोई भी वैश्विक प्रणाली बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय पर ही चल सकती है और अगर वह केवल स्वजन हिताय पर जोर देगी तो अपने ही बोझ तले दब जाएगी।
भारत अन्य विकासशील देशों के साथ चाह रहा था कि दोहा दौर की फिर से पुष्टि की जाए। इसमें जी-33, कम विकसित देश (एलडीसी), अफ्रीकी समूह भी शामिल थे। ये समूह दोहा दौर का सफल निष्कर्ष चाहते हैं। जबकि विकसित देश कन्नी काटते रहे हैं।
गौरतलब है कि दोहा वार्ता में शामिल सभी मुद््दे भारत समेत सभी विकासशील देशों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। दोहा वार्ता में कृषि उपज पर सबसिडी देने के मुद््दे पर भारत और अमेरिका में बने टकराव के कारण बातचीत की प्रक्रिया रुकी हुई है। जबकि दोहा वार्ता का उद््देश्य विश्व व्यापार को सहज और सरल बनाना है। भारत का कहना है कि दोहा वार्ता लंबे समय से चल रही है तथा जटिल मुद््दों और हितों से संबंधित है। अत: इसके लिए समय-सीमा तय नहीं की जा सकती। दोहा वार्ता वर्ष 2001 में शुरू हुई थी। खाद्य सुरक्षा के मसले के स्थायी समाधान के लिए भारत ने प्रस्ताव किया था कि या तो 10 प्रतिशत खाद्य सबसिडी सीमा की गणना का फार्मूला बदला जाय जो 1986-88 की कीमतों पर आधारित है या विकासशील देशों की सरकारों की इस तरह की योजनाओं को सबसिडी की सीमा के दायरे से बाहर रखा जाए।
भारत का यह भी कहना है कि उसकी एक बड़ी आबादी अब भी गरीबी रेखा से नीचे है। इस आबादी को भोजन उपलब्ध कराने के लिए खाद्यान्न का बफर स्टॉक जरूरी है। हालांकि इस एग्रीमेंट के तहत बफर स्टॉक के अधिक होने की स्थिति में भारत इसका निर्यात नहीं कर सकता। जबकि विकसित देशों का कहना है कि यह खाद्यान्न सबसिडीयुक्त है और इससे बाजार-कीमत गलत तरीके से प्रभावित होती है। इतना ही नहीं, विकसित देश भारत द्वारा किसानों को दिए जा रहे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की भी एक सीमा तय करना चाहते हैं, जबकि भारत इसके खिलाफ है। भारत पहले भी यह मसला उठा चुका है।
साथ ही, खाद्य सुरक्षा, कृषि सबसिडी, खाद्यान्न भंडारण, किसानों के हित समेत व्यापार उदारीकरण और बाजार खोलने जैसे बेहद अहम विषयों पर विकसित और विकासशील देशों के बीच सीधा टकराव है। विकसित देशों द्वारा मुक्त व्यापार और पर्यावरण समेत कई नए मुद््दों को सम्मेलन में शामिल करने पर बल देने से भारत जैसे विकासशील देशों के लिए यह करो या मरो की स्थिति हो गई है। अमेरिका और अन्य विकसित देश भारत के सबसिडी कार्यक्रम पर लगाम लगाने की कोशिश कर रहे हैं। इसके विरोध में अन्य विकासशील देश भी लामबंद हैं। दरअसल, सबसिडी पर होने वाले व्यय का मूल्यांकन 1986-88 की कीमतों के आधार पर किया जाता है, जबकि उत्पादन की वास्तविक लागत उस आधार-मूल्य से कहीं ज्यादा बड़ी है। इसीलिए एक समूह के रूप में विकासशील देश व्यापार वार्ताओं में शुरू से विकसित देशों की ऊंची कृषि सबसिडी का मुद्दा उठाते रहे हैं।
लेकिन विकसित देश अपनी कृषि सबसिडी को बहुत ऊंचे स्तर पर बनाए रखते हुए भी विकासशील देशों के लिए सबसिडी पर कृषि के सकल घरेलू उत्पाद के दस फीसद की अधिकतम सीमा थोपने में अब तक कामयाब रहे हैं। विकसित देशों का शुरू से यह दबाव रहा है कि भारत समेत कोई भी विकासशील देश अपनी कुल कृषि उपज के दस फीसद से ज्यादा रकम अपने किसानों को सबसिडी के रूप में न दे। उनका माना है कि ऐसा करने पर बाजार में अनावश्यक विकृति पैदा होती है।
हालांकि विकसित देश अपने कृषि सेक्टर को सत्तर-अस्सी फीसद तक सबसिडी दे रहे हैं। विकसित देशों का यह भी कहना है कि भारत अगर उनसे कृषि सबसिडी कम करने की मांग करता है तो उसके एवज में उसे अपनी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की एक अधिकतम सीमा तय करनी होगी, और ऐसा नहीं करने पर उसे जुर्माना भरना पड़ सकता है। विकसित देश एक तरफ जहां भारत समेत विकासशील देशों के खाद्य कार्यक्रम को नियम-कायदों के खिलाफ बता रहे हैं, वहीं वे कई अंतरराष्ट्रीय खाद्य कार्यक्रम चला रहे हैं और उनका वित्तपोषण कर रहे हैं। भारत का कहना है कि ये कार्यक्रम भी खाद्यान्न की अंतरराष्ट्रीय कीमतों को प्रभावित करते हैं और विकासशील देशों को इसका नुकसान उठाना पड़ता है। यही वजह है कि 2001 में शुरू हुए दोहा दौर से ही कई मुद्दों पर विकासशील और विकसित देशों के बीच टकराव है।

भारत समेत विकासशील देशों द्वारा खाद्यान्न के सार्वजनिक भंडारण के अलावा किसानों को खाद, बीज, कीटनाशक और सिंचाई से जुड़ी सबसिडी देने का मामला विवाद का एक प्रमुख विषय है। अमेरिका, यूरोपीय संघ समेत सभी विकसित देशों का कहना है कि भारत और अन्य विकासशील देशों का यह रवैया मुक्त बाजार व्यवहार के सिद्धांतों के खिलाफ है। जबकि भारत का कहना है कि 2014 में हुए व्यापार सुगमता समझौते के तहत उसे तब तक के लिए खाद्यान्न का बफर स्टॉक बनाए रखने का अधिकार है, जब तक कि इसका कोई स्थायी समाधान नहीं निकाल लिया जाता। बहरहाल, भारत सरकार यह सुनिश्चित करना चाहती है कि किसानों को पर्याप्त मुआवजा मिले और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न हो। भारत यह भी चाहता है कि पहले उन मामलों पर सहमति बने, जो विकासशील और गरीब देशों के लिए ज्यादा अहमियत रखते हैं।

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