13 March 2015

अर्थशास्त्र और राजनीति का संतुलन

केंद्रीय बजट और 14वें वित्त आयोग को लेकर छिड़ी चर्चा तथा उनसे उपजी प्रतिक्रियाओं व विश्लेषणों का शोर अब थमने लगा है। कुछ राज्य और हितधारक संगठन सामाजिक क्षेत्र को अपर्याप्त आवंटन के आधार पर आलोचनात्मक हैं। लेकिन इस बात में एकराय है कि बजट विश्वसनीय और संतुलन साधने वाला है तथा यह उस आर्थिक सुधार को निर्णायक गति प्रदान करता है, जिसकी शुरुआत हो चुकी है। अमेरिकी अर्थशास्त्री थॉमस सोवेल ने कहा है कि ‘अर्थशास्त्र की पहली सीख है अभाव, यानी किसी भी चीज की इतनी उपलब्धता नहीं होती कि उसे चाहने वाले सभी लोगों को संतुष्ट किया जा सके। और राजनीति का पहला सबक है कि अर्थशास्त्र की पहली सीख को नजरअंदाज कर दें।’ ऐसे में, प्रश्न यह है कि इनमें से किस सीख को इस बजट ने अपनाया है?
पीछे मुड़कर देखें, तो वित्त मंत्री के पास परिस्थितियों का फायदा उठाने के लिए कुछ अति महत्वपूर्ण नीतिगत विकल्प थे।
पहला आदर्श विकल्प: विकास बनाम मुद्रास्फीति। रेलवे और राजमार्गों के बुनियादी ढांचे में सार्वजनिक खर्च को बढ़ाने के लिए राजस्व में कितना लचीलापन स्वीकार्य है? हालांकि, 4.1 प्रतिशत के राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को लेकर बजट इस साल दृढ़ रहा है। इसने उच्च मध्यवर्ती लक्ष्यों के साथ तीन प्रतिशत के अंतिम राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को टाल दिया है। रेटिंग एजेंसियां राजकोषीय ब्योरे के प्रति विशेष लगाव को वरीयता देती हैं। साफ है, नए समय-पथ में इसका पालन होना चाहिए। मैं लंबे समय से इस बात की वकालत करता रहा हूं कि संसदीय अनुमतियां पहले से होनी चाहिए, न कि बाद में। वित्त आयोग की सिफारिशों में राजकोषीय परिषद की अनुशंसा निहित है, जो तारीफ के लायक है। वित्त मंत्रालय और भारतीय रिजर्व बैंक के बीच का नया मौद्रिक नीति संरचना समझौता, दोनों मिलकर कई तरीके से काम कर सकते हैं। ये मौद्रिक और राजकोषीय नीति के बीच सौहार्द सुनिश्चित करेंगे।
दूसरा, सब्सिडी की तार्किक व्याख्या। पेट्रोलियम और खाद सब्सिडी को तर्क और जरूरत के आधार पर निर्धारित करने के भी कई महत्वपूर्ण लाभ हैं। पेट्रोल और डीजल के दामों को नियंत्रण-मुक्त करके और एलपीजी सब्सिडी को आधार कार्ड से जोड़कर यह काम पहले ही किया जा रहा है। आगे खाद, खासकर यूरिया के मामले में भी इसी तरह के कदम उठाए जाने चाहिए। जन-धन-आधार-मोबाइल जैसे कार्यक्रमों में भी साथ-साथ कदम उठाने होंगे।
तीसरा, अंतरराष्ट्रीय माहौल का इस्तेमाल करना। तेल की कीमत में नाटकीय तरीके से गिरावट आई है। यह 82 डॉलर से गिरकर 59 डॉलर पर आ गई है और इसी के साथ सॉफ्ट कमोडिटी के दाम भी गिरे हैं। ऐसे में, चालू खाते का घाटा स्वीकार्य है, लेकिन लंबे समय में अनुकूल विनिमय दर से आगे बढ़कर सुस्त निर्यात व्यवहार को नए-नए तरीकों से बदलना होगा। हम राजकोषीय भविष्य के लिहाज से इस अनुकूल अवसर का इस्तेमाल कर सकते हैं। सार्वजनिक कर्ज खत्म किया जा सकता है या जो कर्ज हैं, उनके लिए ‘कंसोलिडेटेड सिंकिंग फंड’ बनाया जा सकता है। हालांकि बजट में जरूरी लाभ उपभोक्ताओं तक पहुंचाने का प्रावधान किया गया है, ताकि उनकी क्रय-शक्ति में इजाफा हो सके। तेल कंपनियों को भी कुछ नुकसानों की क्षति-पूर्ति करने और अपने वित्तीय लक्ष्यों को पूरा करने के लिए पूंजी उगाही की अनुमति दी गई है। अवसर देखते हुए इसे आगे भी बढ़ाया जाना चाहिए।
चौथा, 14वें वित्त आयोग की सिफारिशें। पहले से ही यह धारणा रही है कि केंद्र द्वारा राज्यों को मिले अधिकारों को राज्य संस्तुति की बजाय पुरस्कार के रूप में लेते हैं। साथ ही, अब राज्यों के पास 62 प्रतिशत तक अधिकार-हस्तांतरण हो चुका है, जिनमें से 42 प्रतिशत करों के समान विभाज्य पूल से है। राज्यों को कर में अधिक हिस्सेदारी देने और स्थानीय निकायों को गैर-योजना अनुदान अधिक देने से केंद्र के संसाधनों में 2,06,292 करोड़ की कमी आ गई है। केंद्र सरकार के घटे हुए संसाधन में योजनाओं के लिए पूंजी हासिल करने में संरचनात्मक बदलाव होना स्वाभाविक है। बजट यहां पर भी बीच का रास्ता देता है। यह सार्वजनिक व्यय को तीन वर्गों में बांटता है। पहला, केंद्र समर्थित योजनाएं। दूसरा, साझेदारी के तरीके में बदलाव के साथ जारी रहने वाली योजनाएं और तीसरा, केंद्रीय मदद से पूरी तरह अलग योजनाएं। बड़ी योजनाएं, जैसे सर्वशिक्षा अभियान, मनरेगा, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना केंद्र के खाते में ही हैं। बदली हुई साझेदारी के साथ कुछ अन्य योजनाओं का वित्तीय प्रबंधन होगा। वैसी योजनाएं कम ही हैं, जिनमें केंद्र की सहायता बंद की गई है और निर्णय राज्यों पर छोड़ा गया है। इसमें सबसे विवादास्पद बिहार, केबीके (कालाहांडी, बालांगीर, कोरापुट) व बुंदेलखंड का पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि है।
यह आलोचना गलत है कि सामाजिक क्षेत्र के खर्चों में जबर्दस्त कटौती की गई है। अगर इस पर गौर करें, तो एक तरह की त्रुटि दिखती है। दरअसल, विश्लेषकों ने साल 2014-15 के बजट अनुमान की तुलना मौजूदा साल से की है। जो सार्वजनिक वित्त को जानते-समझते हैं, वे जानते हैं कि आम तौर पर तुलना बजट अनुमान से संशोधित अनुमान की है। आवंटन कमोबेश वैसे ही होते हैं। समेकित बाल विकास योजना के मामले में अधिक कमी हुई है, लेकिन फंडिंग का तरीका अभी तय किया जाना है।
इस तरह, बजट और वित्त आयोग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ये केंद्र-राज्य संबंधों की नई वित्तीय संरचना से उत्पन्न हैं। संघवाद को बढ़ावा देने की दिशा में यह एक बड़ा कदम है, जहां संसाधनों के बड़े हिस्से को चुनने, उन पर नीतियां बनाने और उनको लागू करने की क्षमता राज्यों की होगी। वित्त आयोग की सिफारिशों को स्वीकारने के बाद सरकार के पास विकल्प कम ही था। वैसे भी, आपके पास रोटी बची भी रहे और आप खाएं भी, दोनों नहीं हो सकता। राज्यों के पास काफी संसाधन भी आएं और वे केंद्र से अनुदानित योजनाएं चलाएं, ये दोनों नहीं चल सकता। कोई इस पर बहस कर सकता है कि क्या यही सर्वोत्तम तरीका है या फिर कोई और रास्ता हो सकता था।
क्या वित्तीय संघवाद का यह नया तरीका काम करेगा? इसमें कुछ जोखिम हैं, मगर देश के लिए ढेर सारे अवसर भी हैं। जोखिम जाने-पहचाने हैं। जैसे, यदि राज्य सरकारें गैर-जिम्मेदाराना काम करें या फिर वित्तीय फिजूलखर्ची को बढ़ावा देने लगें। लेकिन अंतत: केंद्र और राज्य सरकारों का मूल्यांकन अपने मतदाताओं की जिंदगी में गुणवत्ता के विकास व सुधार से ही होता है और उनके जनादेश का इन्हें समय-समय पर जरूरत पड़ती है।
बहरहाल, नई वित्तीय संरचना नव-उपनिवेशवाद के किसी भी रूप को दरकिनार करती है। इसलिए केंद्र और राज्यों के बीच के इस नए सामाजिक समझौते का स्वागत किया जाना चाहिए।
इस प्रकार, 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों को स्वीकार किया जाना और केंद्रीय बजट, दोनों यह बताता है कि सरकार ने अर्थशास्त्र की पहली सीख और राजनीति के पहले सबक, दोनों को अपनाया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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