20 April 2014

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सुप्रीम कोर्ट ने किन्नरों को स्त्री और पुरुष से अलग तीसरे लैंगिक समूह की तरह मान्यता देने का फैसला किया है। अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों से कहा है कि वे इस तीसरे लैंगिक समूह को समाज का एक उपेक्षित और पिछड़ा वर्ग मानकर उनकी भलाई के लिए विशेष सुविधाएं मुहैया कराएं। भारत दुनिया में पहला देश है, जहां ऐसा कदम उठाया गया है। अदालत ने यह भी कहा कि ऐसा करने के लिए संविधान या कानूनों में किसी भी तरह केफेरबदल की जरूरत नहीं है, क्योंकि भारतीय संविधान में ही सभी नागरिकों के लिए समान अधिकारों का प्रावधान है। हर किसी को बिना किसी भेदभाव के वे सारे के सारे अधिकार मिलने ही चाहिए, जो संविधान में बताए गए हैं। लैंगिक रुझान की वजह से देश में किसी को भी इन अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता। दिक्कत यह है कि किन्नरों को समाज में अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता, इस सामाजिक दुराग्रह को दूर करने के लिए मानवीय नजरिये की जरूरत है। यह तभी हो सकेगा, जब एक तो उनके प्रति समाज का नजरिया बदले और दूसरे उन्हें समाज में एक उपयोगी भूमिका और सम्मानजनक स्थान मिले।

ऐसे लोगों के प्रति भारतीय समाज का नजरिया इस फैसले से बदल सके, तो बहुत अच्छा होगा। हमारे समाज में किन्नरों के प्रति दोहरा रवैया अपनाया जाता है। एक ओर समाज में खुशी के मौकों पर इनकी मौजूदगी को शुभ माना गया है और इस तरह से इनके लिए रोजी-रोटी का इंतजाम किया गया है, तो दूसरी ओर इनके प्रति ऐसा दुराग्रह है कि ये सामान्य रोजगार या शिक्षा हासिल नहीं कर सकते। ऐसे में, इस वर्ग के लोग गा-बजाकर भीख मांगने या यौन व्यापार की मजबूरी में ही फंसे रहते हैं। ऐतिहासिक रूप से भारत में ऐसे लोग इस तरह सामान्य समाज से बाहर नहीं थे। इतिहास में यह दर्ज है कि कई किन्नर राजाओं की सेना में काम करते थे या छोटे-मोटे शासक भी बने। ब्रिटिश राज के शुरू में यौन शुचिता का जो मॉडल अख्तियार किया गया, उसमें स्त्री और पुरुष के अलावा तमाम दूसरे यौन रुझानों को अपराध का दर्जा मिल गया। इससे ये लोग अलग-थलग पड़ गए। कानूनन अलग दर्जा न मिलने की वजह से ये कई नागरिक अधिकारों से भी वंचित रह गए।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले में यह भी कहा गया है कि स्त्री और पुरुष से इतर अगर किसी का यौन रुझान है, तो उसे इस रुझान या पहचान को जगजाहिर करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। अब चाहे वोटर पहचान पत्र हो, ड्राइविंग लाइसेंस हो या पासपोर्ट, इस तीसरे समूह के लोगों को अपने को स्त्री या पुरुष की तरह दर्ज करवाने की बाध्यता नहीं होगी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कई तरह से ऐतिहासिक है, लेकिन इस तीसरे लैंगिक समूह को बराबरी के लिए अभी एक लंबा रास्ता तय करना होगा। सबसे बड़ी जरूरत इनको शैक्षणिक सुविधाएं मुहैया करवाने की है और यह आसान नहीं है। शिक्षा के बाद आम रोजगारों में इनके लिए जगह बनाना, और फिर देश की मुख्यधारा में इन्हें शामिल करना भी बहुत कठिन काम होगा। लेकिन इसी के बाद ये अपने परंपरागत पेशों से बाहर निकल पाएंगे। उनके प्रति समाज के रवैये और उन्हें लेकर बने उसके नजरिये को बदलना कानूनी अधिकार मिलने से कहीं ज्यादा मुश्किल है। इसके लिए लंबे समय तक सतत प्रयास करने होंगे। अब इस फैसले के बाद देश के कानून निर्माताओं को समलैंगिकता के बारे में धारा 377 पर भी पुनर्विचार करना होगा, क्योंकि ये दोनों मामले जुड़े हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने एक शुरुआत की है, इसके आगे सरकार और समाज को इस उपेक्षित वर्ग के लिए काम करना होगा।

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